From: Dr. Vaidik dr.vpvaidik@gmail.com
14 फरवरी  2012 :  भारत के बच्चों को कैसी भाषा में पढ़ाया  जाए,  इस बात की सुध हमारे  मानव संसाधन मंत्रालय को अब आई है| उसने राज्यों को निर्देश भिजवाएं हैं कि बच्चों  को ऐसी भाषा में पढ़ाया जाए, जो उनके घरों में बोली जाती  हो|
क्या खूब सुझाव है ! इसे कहते हैं कि अकल का  अतिरेक! बच्चों को सरल-सहज स्वाभाविक भाषा में पढ़ाया जाए या मातृभाषा में पढ़ाया  जाए,  इस सिद्घांत का पालन  करने की बजाय अब यह नया मुहावरा गढ़ा जा रहा है| बोलचाल की भाषा का मतलब  क्या है?  न  तो  उसमें उच्चारण  की,  न  व्याकरण की और न ही समझ की एकरूपता होती है| वह तो बोली होती है| अगर बोली में पढ़ाई होगी  तो ये बच्चे आगे जाकर ऐसी भाषा का प्रयोग करेंगे, जो एक-दूसरे को समझ में ही नहीं  आएगी|  यह संवाद की अराजकता बन  जाएगी|  बोली हुई और लिखी हुई भाषाओं में सदा गहरा अंतर  होता है|  उस अंतर को ध्यान में  रखते हुए ही बच्चों को पढ़ाया जाना  चाहिए|
लेकिन बोली हुई भाषा में पढ़ाने का आग्रह  करनेवाले अफसरों का हमें स्वागत करना होगा, क्योंकि कुल मिलाकर उनका  आग्रह मातृभाषाओं पर आकर ही टिकेगा| इस देश में जब तक उन सब स्कूलों पर प्रतिबंध  नहीं लगेगा,  जो बच्चों को विदेशी  भाषा के माध्यम से पढ़ाते हैं, मातृभाषा के माध्यम की पढ़ाई अच्छी हो ही नहीं  पाएगी|  हमारे  केंद्र और राज्य के शिक्षा मंत्रालयों का बर्ताव किसी गुलाम देश  के  शिक्षा-मंत्रालयों की तरह रहा  है|  उन्होंने अंग्रेजी माध्यम के तथाकथित  पब्लिक स्कूलों का कभी विरोध ही नहीं किया| सारी दुनिया के महान शिक्षाविदों की राय है कि  बच्चों  को विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाने पर उनकी बुद्घि कुंठित हो जाती  है, उनकी मौलिकता नष्ट हो जाती  है, वे रट्टू-तोते बन जाते हैं| यूरोप के बच्चों पर जब अंग्रेजी थोपी गई तो मालूम  पड़ा कि ज्यादातर बच्चों को अनिद्रा,  विस्मरण और कंपन आदि की बीमारियां हो गई| हमारे देश में तो जिन बच्चों पर अंग्रेजी थोपी  जाती है,  उन्हें एक भयंकर रोग हो जाता  है|  उसका नाम है, उच्चता ग्रंथि! इस  उच्चता के अभिमान में वे अपने देश, परिवार और माता-पिता से भी कट जाते  हैं|  वे भारतीय नहीं  रहते|  वे  इंडियन बन जाते हैं| इसी गलत शिक्षा नीति के कारण हमारे एक देश में  दो देश खड़े हो गए है| 'शिक्षा मंत्रालय' का नाम बदलकर मानव संसाधन मंत्रालय कर दिया  गया|  मनुष्य को जो साध्य नहीं, साधन बना दे, क्या हम उसे शिक्षा कहेंगे? शिक्षा के नाम पर देश  में अशिक्षा फैलानेवाले हमारे नेताओं ने ज्ञान आयोग भी बनाया है, जिसका काम देश में  अज्ञान फैलाना है| देश में अशिक्षा और अज्ञान फैलानेवाले नेताओं  से जब तक छुटकारा नहीं होगा, हमारे बच्चों की पढ़ाई नहीं  सुधरेगी|
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"हिन्दी सीखो और प्रांतीयता का त्याग करो"
बंगालियों को सुभाष चन्द्र बोस की सलाह
From: kvachaknavee@yahoo.com;
@http://www.hindi-bharat.com/2012/01/blog-post_23.html
8 जुलाई 1939 के "हिंदुस्तान" समाचार पत्र में बाबू सुभाष चन्द्र बोस के विषय में एक समाचार छपा था जिसमें अन्य कई विषयों सहित सुभाष बाबू ने जबलपुर के बाङ्ला समाज को हिन्दी सीखने व प्रांतीयता का त्याग करने की सलाह दी।
आज सुभाष बाबू के जन्मदिवस (23 जनवरी) पर, अमर सेनानी को प्रणाम सहित, प्रस्तुत है उस ऐतिहासिक समाचार की रिपोर्ट -
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From: Dr. Vaidik  <dr.vpvaidik@gmail.com>
हिरणों पर क्यों लादें  घास?
03 मार्च 2012: यह खबर तो एक ही है लेकिन इसे कोई अच्छी भी कह सकता है और कोई बहुत बुरी भी! इस समय भारत में दो करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो अंग्रेजी-माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे हैं| आठ साल पहले इनकी संख्या मुश्किल से 60-65 लाख थी| इस अंग्रेजी-प्रेम की व्याख्या आप कैसे करेंगे? अपने बच्चों को लोग अंग्रेजी-माध्यम के स्कूलों में क्यों ठेल रहे हैं| किसी भी विषय को यदि आप किसी विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ें तो क्या आप उसे ज्यादा आसानी से सीख लेते हैं या उसे क्या आप ज्यादा जल्दी सीख लेते हैं? क्या अंग्रेजी आपके बच्चों को अधिक संस्कारवान या बेहतर इंसान बनाती है? यदि आप अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं तो क्या उनकी फीस माफ होती है? जिन देशों के बच्चे विदेशी भाषा — अंग्रेजी या अन्य – के माध्यम से पढ़ते हैं क्या वे देश बहुत संपन्न और महाशक्ति बन जाते हैं?
इन  सब प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है| विदेशी भाषा के  माध्यम से पढ़ने पर बच्चों का दिमाग कमजोर हो जाता  है|  उनका  ध्यान विषय सीखने में जितना लगता है, उससे  ज्यादा विदेशी भाषा में निपटने में बर्बाद होता है| वे  रट्रटू तोते बन जाते हैं| उनकी मौलिकता घट जाती है  या नष्ट हो जाती है| उन्हें अनेक मानसिक  बीमारियां हो जाती हैं| यदि  वे ही विषय उन्हें  उनकी मातृभाशा में पढ़ाएं जाएं तो वे उन्हें बहुत जल्दी सीखते  हैं| दुनिया के किसी भी मालदार और शक्तिशाली देश  के बच्चों को विदेशी भाषा के  माध्यम से नहीं पढ़ाया जाता| सुरक्षा परिषद के पांच  स्थायी सदस्य –  अमेरिका, बि्रटेन, रूस, फ्रांस और चीन पर यह बात  लागू होती है|  जर्मनी, जापान, स्वीडन, ब्राजील आदि देश भी अपने बच्चों को अपनी  भाषाओं के माध्यम से पढ़ाते  हैं| सिर्फ  अंग्रेजों के पूर्व  गुलाम देशों –  भारत  और पाक  जैसे –  में विदेशी भाषा का माध्यम चलता है|
यह  बच्चों पर होने वाला सबसे कठोर और सूक्ष्म अत्याचार  है|  इस पर  तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए| यह  हमारे बच्चों को  पश्चिम का नकलची और पिछलग्गू बनाने का अदृश्य षडयंत्र्  है|  अंग्रेजी माध्यम से चलने वाले स्कूल शिक्षा के केंद्र  नहीं हैं, यह  अंधाधुंध मुनाफा लूटनेवाली दुकानें हैं| यह  सब जानते हुए भी  लोग अपना पेट काटकर अपने बच्चों को इसीलिए इन स्कूलों में भेजते  हैं कि वे सरकारी नौकरियां आसानी से हथिया सकें| यदि  समस्त नौकरियों से  अंग्रेजी की अनिवार्यता हटा ली जाए तो कौन मूर्ख माता-पिता  होंगे, जो  अपने हिरणों पर घास लादेंगे?
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From: Dr.Kavita Vachaknavee - kvachaknavee@yahoo.com;
आशा भोसलें और तीजनबाई का तमाचा
http://visfot.com/home/index.php/permalink/5749.html
डॉ. वेदप्रताप वैदिक - Dr. Ved Pratap Vaidik <dr.vaidik@gmail.com>
http://streevimarsh.blogspot.com/2012/02/blog-post.html
मुह तो लाई लोई तो क्या करे गा कोई ------- that is the morality of those who speak English and there is no remedy for such people because those are ""बिकाउ" " people -----
these people will never learn ----
आशा भोंसले और तीजन बाई ने दिल्लीवालों की लू उतार दी। ये दोनों देवियाँ 'लिम्का बुक ऑफ रेकार्ड' के कार्यक्रम में दिल्ली आई थीं। संगीत संबंधी यह कार्यक्रम पूरी तरह अंग्रेजी में चल रहा था। यह कोई अपवाद नहीं था। आजकल दिल्ली में कोई भी कार्यक्रम यदि किसी पाँच-सितारा होटल या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसी जगहों पर होता है तो वहाँ हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा के इस्तेमाल का प्रश्न ही नहीं उठता। इस कार्यक्रम में भी सभी वक्तागण एक के बाद एक अंग्रेजी झाड़ रहे थे। मंच संचालक भी अंग्रेजी बोल रहा था।
जब तीजनबाई के बोलने की बारी आई तो उन्होंने कहा कि यहाँ का माहौल देखकर मैं तो डर गई हूँ। आप लोग क्या-क्या बोलते रहे, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। मैं तो अंग्रेजी बिल्कुल भी नहीं जानती। तीजनबाई को सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था लेकिन जो कुछ वहाँ हो रहा था, वह उनका अपमान ही था लेकिन श्रोताओं में से कोई भी उठकर कुछ नहीं बोला। तीजनबाई के बोलने के बावजूद कार्यक्रम बड़ी बेशर्मी से अंग्रेजी में ही चलता रहा। इस पर आशा भोंसले झल्ला गईं। उन्होंने कहा कि मुझे पहली बार पता चला कि दिल्ली में सिर्फ अंग्रेजी बोली जाती है। लोग अपनी भाषाओं में बात करने में भी शर्म महसूस करते हैं। उन्होंने कहा मैं अभी लंदन से ही लौटी हूं। वहाँ लोग अंग्रेजी में बोले तो बात समझ में आती है लेकिन दिल्ली का यह माजरा देखकर मैं दंग हूँ। उन्होंने श्रोताओं से फिर पूछा कि आप हिंदी नहीं बोलते, यह ठीक है लेकिन आशा है, मैं जो बोल रही हूँ, उसे समझते तो होंगे? दिल्लीवालों पर इससे बड़ी लानत क्या मारी जा सकती थी?
इसके बावजूद जब मंच-संचालक ने अंग्रेजी में ही आशाजी से आग्रह किया कि वे कोई गीत सुनाएँ तो उन्होंने क्या करारा तमाचा जमाया? उन्होंने कहा कि यह कार्यक्रम कोका कोला कंपनी ने आयोजित किया है। आपकी ही कंपनी की कोक मैंने अभी-अभी पी है। मेरा गला खराब हो गया है। मैं गा नहीं सकती।
क्या हमारे देश के नकलची और गुलाम बुद्धिजीवी आशा भोंसले और तीजनबाई से कोई सबक लेंगे? ये वे लोग हैं, जो मालिक है और प्रथम श्रेणी के हैं जबकि सड़ी-गली अंग्रेजी झाड़नेवाले हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को पश्चिमी समाज नकलची और दोयम दर्जे का मानता है। वह उन्हें नोबेल और बुकर आदि पुरस्कार इसलिए भी दे देता है कि वे अपने-अपने देशों में अंग्रेजी के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के मुखर चौकीदार की भूमिका निभाते रहें। उनकी जड़ें अपनी जमीन में नीचे नहीं होतीं, ऊपर होती हैं। वे चमगादड़ों की तरह सिर के बल उल्टे लटके होते हैं। आशा भोंसले ने दिल्लीवालों के बहाने उन्हीं की खबर ली है।
01 फरवरी 2012
ए-19, प्रेस एनक्लेव, नई दिल्ली-17, फोन घरः 2651-7295,
मो. 98-9171-1947
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