बाजार और मीडिया के बीच भारतीय भाषाएं
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हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर समाज में एक अजीब सा सन्नाटा है। संचार व
मीडिया की भाषा पर कोई बात नहीं करना चाहता। उसके जायज-नाजायज इस्तेमाल और भाषा
में दूसरी भाषाओं खासकर अंग्रेजी की मिलावट को लेकर भी कोई प्रतिरोध नजर नहीं आ
रहा है। ठेठ हिंदी का ठाठ जैसे अंग्रेजी के आतंक के सामने सहमा पड़ा है और
हिंदी और भारतीय भाषाओं के समर्थक एक अजीब निराशा से भर उठे हैं। ऐसे में
मीडिया की दुनिया में इन दिनों भाषा का सवाल काफी गहरा हो जाता है। मीडिया में
जैसी भाषा का इस्तेमाल हो रहा है उसे लेकर शुध्दता के आग्रही लोगों में काफी
हाहाकार व्याप्त है। चिंता हिंदी की है और उस हिंदी की जिसका हमारा समाज उपयोग
करता है। बार-बार ये बात कही जा रही है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में
अंग्रेजी की मिलावट से हमारी भाषाएं अपना रूप-रंग-रस और गंध खो रही है।
बाजार की सबसे प्रिय भाषाः
हिंदी हमारी भाषा के नाते ही नहीं,अपनी उपयोगिता के नाते भी आज बाजार की सबसे
प्रिय भाषा है। आप लाख अंग्रेजी के आतंक का विलाप करें। काम तो आपको हिंदी में
ही करना है, ये मरजी आपकी कि आप अपनी स्क्रिप्ट देवनागरी में लिखें या रोमन
में। यह हिंदी की ही ताकत है कि वह सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे
हिंदी बुलवा ही लेती है। उड़िया न जानने के आरोप झेलनेवाले नेता नवीन पटनायक भी
हिंदी में बोलकर ही अपनी अंग्रेजी न जानने वाली जनता को संबोधित करते हैं। इतना
ही नहीं प्रणव मुखर्जी की सुन लीजिए वे कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री नहीं बन
सकते क्योंकि उन्हें ठीक से हिंदी बोलनी नहीं आती। कुल मिलाकर हिंदी आज मीडिया,
राजनीति,मनोरंजन और विज्ञापन की प्रमुख भाषा है। हिंदुस्तान जैसे देश को एक
भाषा से सहारे संबोधित करना हो तो वह सिर्फ हिंदी ही है। यह हिंदी का अहंकार
नहीं उसकी सहजता और ताकत है। मीडिया में जिस तरह की हिंदी का उपयोग हो रहा है
उसे लेकर चिंताएं बहुत जायज हैं किंतु विस्तार के दौर में ऐसी लापरवाहियां हर
जगह देखी जाती हैं। कुछ अखबार प्रयास पूर्वक अपनी श्रेष्टता दिखाने अथवा युवा
पाठकों का ख्याल रखने के नाम पर हिंग्लिश परोस रहे हैं जिसकी कई स्तरों पर
आलोचना भी हो रही है। हिंग्लिश का उपयोग चलन में आने से एक नई किस्म की भाषा का
विस्तार हो रहा है। किंतु आप देखें तो वह विषयगत ही ज्यादा है। लाइफ स्टाइल,
फिल्म के पन्नों, सिटी कवरेज में भी लाइट खबरों पर ही इस तरह की भाषा का प्रभाव
दिखता है। चिंता हिंदी समाज के स्वभाव पर भी होनी चाहिए कि वह अपनी भाषा के
प्रति बहुत सम्मान भाव नहीं रखता, उसके साथ हो रहे खिलवाड़ पर उसे बहुत आपत्ति
नहीं है। हिंदी को लेकर किसी तरह का भावनात्मक आधार भी नहीं बनता, न वह अपना
कोई ऐसा वृत्त बनाती है जिससे उसकी अपील बने।
समर्थ बोलियों का संसारः
हिंदी की बोलियां इस मामले में ज्यादा समर्थ हैं क्योंकि उन्हें क्षेत्रीय
अस्मिता एक आधार प्रदान करती है। हिंदी की सही मायने में अपनी कोई जमीन नहीं
है। जिस तरह भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, बधेली, गढ़वाली,
मैथिली,बृजभाषा जैसी तमाम बोलियों ने बनाई है। हिंदी अपने व्यापक विस्तार के
बावजूद किसी तरह का भावनात्मक आधार नहीं बनाती। सो इसके साथ किसी भी तरह की
छेड़छाड़ किसी का दिल भी नहीं दुखाती। मीडिया और मनोरंजन की पूरी दुनिया हिंदी
के इसी विस्तारवाद का फायदा उठा रही है किंतु जब हिंदी को देने की बारी आती है
तो ये भी उससे दोयम दर्जे का ही व्यवहार करते हैं। यह समझना बहुत मुश्किल है कि
विज्ञापन, मनोरंजन या मीडिया की दुनिया में हिंदी की कमाई खाने वाले अपनी
स्क्रिप्ट इंग्लिश में क्यों लिखते हैं। देवनागरी में किसी स्क्रिप्ट को लिखने
से क्या प्रस्तोता के प्रभाव में कमी आ जाएगी, फिल्म फ्लाप हो जाएगी या मीडिया
समूहों द्वारा अपने दैनिक कामों में हिंदी के उपयोग से उनके दर्शक या पाठक भाग
जाएंगें। यह क्यों जरूरी है कि हिंदी के अखबारों में अंग्रेजी के स्वनामधन्य
लेखक, पत्रकार एवं स्तंभकारों के तो लेख अनुवाद कर छापे जाएं उन्हें मोटा
पारिश्रमिक भी दिया जाए किंतु हिंदी में मूल काम करने वाले पत्रकारों को मौका
ही न दिया जाए। हिंदी के अखबार क्या वैचारिक रूप से इतने दरिद्र हैं कि उनके
अखबारों में गंभीरता तभी आएगी जब कुछ स्वनामधन्य अंग्रेजी पत्रकार उसमें अपना
योगदान दें। यह उदारता क्यों। क्या अंग्रेजी के अखबार भी इतनी ही सदाशयता से
हिंदी के पत्रकारों के लेख छापते हैं।
रोमन में हो रहा है कामः
पूरा विज्ञापन बाजार हिंदी क्षेत्र को ही दृष्टि में रखकर विज्ञापन अभियानों को
प्रारंभ करता है किंतु उसकी पूरी कार्यवाही देवनागरी के बजाए रोमन में होती है।
जबकि अंत में फायनल प्रोडक्ट देवनागरी में ही तैयार होना है। गुलामी के ये भूत
हमारे मीडिया को लंबे समय से सता रहे हैं। इसके चलते एक चिंता चौतरफा व्याप्त
है। यह खतरा एक संकेत है कि क्या कहीं देवनागरी के बजाए रोमन में ही तो हिंदी न
लिखने लगी जाए। कई बड़े अखबार भाषा की इस भ्रष्टता को अपना आर्दश बना रहे हैं।
जिसके चलते हिंदी सरमायी और सकुचाई हुई सी दिखती है। शीर्षकों में कई बार पूरा
का शब्द अंग्रेजी और रोमन में ही लिख दिया जा रहा है। जैसे- मल्लिका का BOLD
STAP या इसी तरह कौन बनेगा PM जैसे शीर्षक लगाकर आप क्या करना चाहते हैं। कई
अखबार अपने हिंदी अखबार में कुछ पन्ने अंग्रेजी के भी चिपका दे रहे हैं। आप ये
तो तय कर लें यह अखबार हिंदी का है या अंग्रेजी का। रजिस्ट्रार आफ न्यूजपेपर्स
में जब आप अपने अखबार का पंजीयन कराते हैं तो नाम के साथ घोषणापत्र में यह भी
बताते हैं कि यह अखबार किस भाषा में निकलेगा क्या ये अंग्रेजी के पन्ने जोड़ने
वाले अखबारों ने द्विभाषी होने का पंजीयन कराया है। आप देखें तो पंजीयन हिंदी
के अखबार का है और उसमें दो या चार पेज अंग्रेजी के लगे हैं। हिंदी के साथ ही
आप ऐसा कर सकते हैं। संभव हो तो आप हिंग्लिश में भी एक अखबार निकालने का प्रयोग
कर लें। संभव है वह प्रयोग सफल भी हो जाए किंतु इससे भाषायी अराजकता तो नहीं
मचेगी।
हिंदी के खिलाफ मनमानीः
हिंदी में जिस तरह की शब्द सार्मथ्य और ज्ञान-विज्ञान के हर अनुशासन पर अपनी
बात कहने की ताकत है उसे समझे बिना इस तरह की मनमानी के मायने क्या हैं। मीडिया
की बढ़ी ताकत ने उसे एक जिम्मेदारी भी दी है। सही भाषा के इस्तेमाल से नई पीढ़ी
को भाषा के संस्कार मिलेंगें। बाजार में हर भाषा के अखबार मौजूद हैं, मुझे
अंग्रेजी पढ़नी है तो मैं अंग्रेजी के अखबार ले लूंगा, वह अखबार नहीं लूंगा
जिसमें दस हिंदी के और चार पन्ने अंग्रेजी के भी लगे हैं। इसी तरह मैं अखबार के
साथ एक रिश्ता बना पाता हूं क्योंकि वह मेरी भाषा का अखबार है। अगर उसमें भाषा
के साथ खिलवाड़ हो रहा है तो क्या जरूरी है मैं आपके इस खिलवाड़ का हिस्सा
बनूं। यह दर्द हर संवेदनशील हिंदी प्रेमी का है। हिंदी किसी जातीय अस्मिता की
भाषा भले न हो यह इस महादेश को संबोधित करनेवाली सबसे समर्थ भाषा है। इस सच्चाई
को जानकर ही देश का मीडिया, बाजार और उसके उपादान अपने लक्ष्य पा सकते हैं।
क्योंकि हिंदी की ताकत को कमतर आंककर आप ऐसे सच से मुंह चुरा रहे हैं जो सबको
पता है। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के
कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने
वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना,
प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है जिस तक पहुंचने के लिए अभी
काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में
ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ
इसी 'लोक' का हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी 'कविराय' कहा
जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह 'लोक' को नष्ट करने का
षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी
है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा
रहा है। अंडमान की 'बो' नाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया
है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। आज के मुख्यधारा
के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के
प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की
जरूरत है क्योंकि 'लोक' की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन
कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की
जरूरत है।
बढ़ती ताकत के बावजूद उपेक्षाः
भारतीय भाषाओं के प्रकाशन आज अपनी प्रसार संख्या और लोकप्रियता के मामले में
अंग्रेजी पर भारी है, बावजूद इसके उसका सम्मान बहाल नहीं हो रहा है। इंडियन
रीडरशिप सर्वे की रिपोर्ट देंखें तो सन् 2011 के आंकडों में देश के दस सर्वाधिक
पढ़े जाने वाले अखबारों में अंग्रेजी का एक मात्र अखबार है वह भी छठें स्थान
पर। जिसमें पहले तीन स्थान हिंदी अखबारों के लिए सुरक्षित हैं। यानि कुल पहले
10 अखबारों में 9 अखबार भारतीय भाषाओं के हैं। आईआरएस जो एक विश्वसनीय पाठक
सर्वेक्षण है के मुताबिक अखबारों की पठनीयता का क्रम इस प्रकार है-
1.दैनिक जागरण (हिंदी)
2. दैनिक भास्कर (हिंदी)
3.हिंदुस्तान (हिंदी)
4. मलयालम मनोरमा( मलयालम)
5.अमर उजाला (हिंदी)
6.द टाइम्स आफ इंडिया (अंग्रेजी)
7.लोकमत (मराठी)
8.डेली थांती (तमिल)
9.राजस्थान पत्रिका (हिंदी)
10. मातृभूमि (मलयालम)
देश की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में भी पहले 10 स्थान पर अंग्रेजी के
मात्र दो प्रकाशन शामिल हैं। इंडियन रीडरशिप सर्वे के 2011 के आंकड़े देखें तो
देश में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाली पत्रिका वनिता (मलयालम) है। दूसरा स्थान
हिंदी के प्रकाशन प्रतियोगिता दर्पण को प्राप्त है। देश में सर्वाधिक पढ़ी जाने
वाली पत्रिकाओं का क्रम इस प्रकार हैः
वनिता (मलयालम)-पाक्षिक
प्रतियोगिता दर्पण (हिंदी)-मासिक
सरस सलिल( हिंदी)-पाक्षिक
सामान्य ज्ञान दर्पण (हिंदी)-मासिक
इंडिया टुडे (अंग्रेजी)-साप्ताहिक
मेरी सहेली (हिंदी)-मासिक
मलयालया मनोरमा (मलयालम)-साप्ताहिक
क्रिकेट सम्राट (हिंदी)-मासिक
जनरल नालेज टुडे (अंग्रेजी)-मासिक
कर्मक्षेत्र (बंगला)-साप्ताहिक ( स्रोतः आईआरएस-2011 क्यू फोर)
भाषा के अपमान का सिलसिलाः
इस संकट के बरक्स हम भाषा के अपमान का सिलसिला अपनी शिक्षा में भी देख सकते
हैं। हालात यह हैं कि मातृभाषाओं में शिक्षा देने के सारे जतन आज विफल हो चुके
हैं। जो पीढ़ी आ रही है उसके पास हिंग्लिस ही है। वह किसी भाषा के साथ अच्छा
व्यवहार करना नहीं जानती है। शिक्षा खासकर प्राथमिक शिक्षा में भाषाओं की
उपेक्षा ने सारा कुछ गड़बड़ किया है। इसके चलते हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर चुके
हैं जिनमें भारतीय भाषाओं और हिंदी के लिए आदर नहीं है। इसलिए पापुलर का पाठ
गाता मीडिया भी ऐसी मिश्रित भाषा के पीछे भागता है। साहित्य के साथ पत्रकारिता
की बढ़ी दूरी और भाषा के साथ अलगाव ने मीडिया को एक नई तरह की भाषा और पदावली
दी है। जिसमें वह संवाद तो कर रहा है किंतु उसे आत्मीय संवाद में नहीं बदल पा
रहा है। जिस भाषा के मीडिया का साहित्य से एक खास रिश्ता रहा हो, उसकी
पत्रकारिता ने ही हिंदी को तमाम शब्द दिए हों और भाषा के विकास में एक खास
भूमिका निभायी हो, उसकी बेबसी चिंता में डालती है। भाषा, साहित्य और मीडिया के
इस खास रिश्ते की बहाली जरूरी है। क्योंकि मीडिया का असर उसकी व्यापकता को
देखते हुए साहित्य की तुलना में बहुत बड़ा है। किंतु साहित्य और भाषा के आधार
अपने मीडिया की रचना खड़ी करना जरूरी है,क्योंकि इनके बीच में अंतरसंवाद से
मीडिया का ही लाभ है। वह समाज को वे तमाम अनुभव भी दे पाएगा जो मीडिया की
तुरंतवादी शैली में संभव नहीं हो पाते। पापुलर को साधते हुए मीडिया को उसे भी
साधना होगा जो जरूरी है। मीडिया का एक बड़ा काम रूचियों का परिष्कार भी है। वह
तभी संभव है जब वह साहित्य और भाषा से प्रेरणाएं ग्रहण करता रहे। भाषा की सहजता
से आगे उसे भाषा के लोकव्यापीकरण और उसके प्रति सम्मान का भाव भी जगाना है तभी
वह सही मायने में 'भारत का मीडिया' बन पाएगा।
प्रस्तुतिः संजय द्विवेदी
· लेखक परिचय
संजय द्विवेदी
लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि, भोपाल में जनसंचार विभाग के
अध्यक्ष हैं। संपर्कः अध्यक्ष, जनसंचार विभाग,माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय
पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल
(मप्र)मोबाइलः 098935-98888
From: bipin kumar sinha
किसी भाषा की शिक्षा सर्वप्रथम घर और परिवार से आरंभ होती है जैसे अन्य संस्कार
घर से शुरू होते है .घर प्रार्थमिक पाठशाला है इसलिए इस समस्या के जड़ की तलाश
वहीँ करनी चाहिए .घर के बुजुर्ग ही इस पर ध्यान दे कि बच्चा जो भाषा बोल रहा है
वह शुद्ध है या नहीं .इसके लिए उसे भी अपनी भाषा का परिमार्जन करते रहना होगा
.यदि हम अंग्रेजी बोल रहे है तो उसे भी सही बोलना चाहिए ताकि बच्चे उसे भी ठीक
से बोल सके .पर जब हम ही भाषा का प्रयोग सही ढंग से न कर रहे हों तो दुसरे को
दोष देना उचित नहीं है.रही संचार माध्यमो द्वारा भाषाओँ के दुरूपयोग का तो उस
तरफ अधिक ध्यान देने कि आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसकी स्थिति एक मदारी या तेल
बेचने वाले सेअधिक नहीं है.क्यों कि भाषा को तोडना और मरोरना इनके व्यवसाय से
जुडा रहता है .इनसे भाषा की शुद्धता अपेच्छा करना ही गलत है यह हमें ध्यान देना
है कि इससे हमारी भाषा में विकृति न आ जाये किसी भी प्रकार के प्रदुषण के लिए
हम स्वयं को सुरक्षित करने का प्रयत्न करते है तो उसी प्रकार भाषा के प्रदुषण
के लिए सुर क्षात्मक उपाय करने चाहिए जो भी बन पड़े वह कदम उठाना चाहिए .मैंने
पढ़ा है कि देवकीनंदन खत्री की चन्द्रकांता पढने के लिए बहुतो ने हिंदी भाषा
सीखी उसी प्रकार हम आज भी ऐसा कर सकते है की शुद्ध हिंदी सीखने के लिए लोग विवश
हो जाये.मैंने देखा है की लोग लिखने और बोलने में लिंग बोध और कारक चिन्हों का
गलत प्रयोग करते है पर इसका जरा भी उन्हें दुःख नहीं होता है और न ही अपमान बोध
का .जन्म देने वाली माँ के बाद भाषा को ही दूसरी माँ समझना चाहिए.पर इसका यह
आशय नहीं है कि दूसरी भाषा नहीं सीखनी चाहिए पर कोई अपनी माँ का अनादर कर दूसरी
स्त्री को वह सम्मान नहीं देता है तो वह भाषा के साथ ऐसा कैसे कर सकता है.?
अर्थात नहीं कर सकता है .होना तो यह चाहिए कि हम अधिक से अधिक भाषा सीखने को
तत्पर रहे पर निज भाषा कि उन्नति की ओर प्रयास करते रहे भाषा राजनीति का प्रश्न
न हो कर संस्कृति का विषय बननी चाहिए .इसके लिए विभिन्न भाषाओँ के साहित्य का
आदान प्रदान होना चाहिए. और इसके लिए पढने की आदत डालनी चाहिए.जो आजकल समाप्त
हो रही है.इस ओर भी प्रयास करना होगा .
बिपिन कुमार सिन्हा
dr. madhusudan
भाषा परिवर्तन परिष्कृति (संस्कृत-संस्कृति) की दिशा में हो, विकृति की दिशामें
नहीं.
(१) "मिडिया" शब्द तो हमारे माध्यम का ही अंग्रेज़ी बना "मीडियम" शब्दका बहुवचन
है. उसे हम वापस उधार ले रहे हैं.
वाह वाह.
जो अन्ग्रेजी ने हम से लिया था, उसी को वापस?
इस से अधिक बुद्धूपना क्या हो सकता है?
(२) उसी प्रकार हमारे "केंद्र" से ही अंग्रेज़ी C E N T R E (केंत्र -केंटर –और
बाद में सेंटर बना) बड़ी कृतज्ञता से, उसे वापस ला रहे हैं, सेंटर शब्द स्वीकार
कर ?
(३) हमारे माध्यम शब्दसे माध्यमिक, मध्यम, माध्यमिकता. माध्यमि, मध्यावधि,
सुमध्य, मध्यांतर, माध्यमीय, मध्यस्थ, मध्यस्थी—-ऐसे १६० तक, अनेक शब्द साथ
मिलकर, अपना पूरा परिवार हमारी सेवामें तैयार हो जाता है|
—-कोई ऐसा, "मिडिया" शब्द से कर के दिखाए|
(४) ऐसा ही केंद्र से भी किया जा सकता है.
(५) अंग्रेजी को दीये हुए, शब्दों को ही अलग रूपमें वापस लाकर देने वाली हिंदी
को ही भिखारन बना दिया?
सारे संचार माध्यम के अज्ञानियों को प्रशिक्षित करना पड़ेगा.
यह भाषा प्रदुषण क्षमा की योग्यता नहीं रखता.
बड़ी देर भई है भाई –बड़ी देर भई है.
Hindi Radio / Website by China (Dragon)
From: mrapsc - mrapsc@gmail.com;
http://hindi.cri.cn/
http://hindi.cri.cn/
Just to know what our AGGRESSIVE Neighbor says in Hindi. They have a good
website as well.
I am surprised that there is nothing like this being done by Bharat/ India
via All India Radio, or, something.
Atleast we should have had a Website/ Radio in ITALIAN to please our Masters
:) LOL
Bharat/ India should look into developing websites/ radio channels in
different languages so that we can express our views to a larger crowd.
We should also focus towards Chinese, Spanish (many countries speak),
Portuguese (Brazil - a very huge country), Russian (After break-up of USSR
so many countries speak), French (countries speaking are France, Belgium
etc), German (couple of countries in Europe such as Austria, etc), Turkish,
Vietnamese, Arab, Japanese, Korean, etc., English should not be the only
focus! which is only making English speaking Cheap Indian Clerks for 4 - 6
English speaking countries, and slowly killing our creativity and ingenuity.
Vande Mataram/ Jai Bharat
__._,_.___



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