ज्वलंत प्रश्न भारत डोगरा
समाज हित में सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं के प्रयासों के विरुद्ध
हिंसा से भारतीय लोकतंत्र में शान्तिपूर्ण तौर-तरीकों से सार्थक बदलाव की
संभावना कम हो रही है, समाज में जगह-जगह बिखरी रचनात्मकता पर आघात हो रहा
है व देश के प्रतिभावान निष्ठावान नागरिकों की क्षमताओं को कुंठित किया
जा रहा है यह मांग तेजी से उठी है कि औपनिवेशिक राज के दिनों में बने
राष्ट्रद्रोह संबंधी कानून का उपयोग स्वतंत्र व लोकतांत्रिक भारत में
सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरुद्ध जिस तरह जारी है, उस पर रोक लगनी चाहिए
हाल ही में पर्यावरण रक्षा के सजग प्रहरी रमेश अग्रवाल पर छत्तीसगढ़ में
हमला कर उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया गया। असम में बड़े बांधों पर सवाल
उठाने वाले जाने-माने कार्यकर्ता अखिल गोगोई को भी हमलावरों ने घायल कर
दिया जबकि उत्तराखंड में एक बांध परियोजना का जायजा लेने गए सामाजिक
कार्यकर्ताओं के विरुद्ध सुनियोजित हिंसा करवाई गई। किसी लोकतंत्र की
सफलता का बड़ा पैमाना यह है कि वहां नागरिकों की (विशेषकर कमजोर वर्ग की)
समस्याएं सुलझाने व समाज में सार्थक बदलाव लाने के लिए शान्तिपूर्ण
आंदोलन, धरने, प्रदर्शन, जन-संगठन बनाने व निरंतरता से जन-जागृति के
प्रयासों के लिए पर्याप्त स्थान हो। भारतीय लोकतंत्र की यह बड़ी उपलब्धि
रही है कि ऐसे प्रयासों से कई समस्याएं बनी रहने के बावजूद तरह-तरह के
उम्मीद जगाने वाले व प्रयोगात्मक प्रयास होते रहे हैं। इस तरह एक ओर समाज
में रचनात्मकता बढ़ती है तो दूसरी ओर कुछ छोटी सार्थक शुरुआतों को
व्यापकता प्राप्त करने का अवसर मिलता है। पर हाल के दौर में शान्तिपूर्ण
कार्य करने वाले अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं व जन- संगठनों पर हो रहे
हमलों, उनकी गिरफ्तारियों व प्रताड़ित-परेशान करने के प्रयासों के बीच
भारतीय लोकतंत्र की यह उपलब्धि क्षतिग्रस्त हुई है। इस व्यवस्था पर एक ओर
राज्य-शक्ति से ही उत्पीड़न हुआ है, तो दूसरी ओर निहित स्वाथरे के तहत
हिंसा व दहशत फैलाई जा रही है। और इन मामलों में राज्य शक्ति सामाजिक
कार्यकर्ताओं को सुरक्षा देने में पीछे हट रही है। इस तरह के प्रयासों के
विरुद्ध हिंसा होने से भारतीय लोकतंत्र में शान्तिपूर्ण तौर-तरीकों से
सार्थक बदलाव की संभावना कम हो रही है, समाज में जगह-जगह बिखरी
रचनात्मकता पर आघात हो रहा है व देश के प्रतिभावान निष्ठावान नागरिकों की
क्षमताओं को कुंठित किया जा रहा है। शान्तिपूर्ण तरीकों से किए जा रहे
सामाजिक बदलाव के प्रयासों के दमन से समाज हिंसा की ओर बढ़ रहा है जो
दुखद है। भूमिहीनों, आदिवासियों के हित में एकता परिषद वर्षो से कार्यरत
है। कठिन परिस्थितियों में भी संगठन ने भूमि-सुधार के मुद्दे को जीवित
रखा है, पर गांधीवादी विचार से प्रेरित इस संगठन के कार्यकर्ताओं को
उत्पीड़न झेलना पड़ा है। सूचना का अधिकार कानून के बाद से तो नागरिकों का
संवैधानिक अधिकार है कि वे इसका उपयोग भ्रष्टाचार से लड़ने या अन्य
सार्थक उद्देश्यों के लिए करें पर इसका उपयोग करने वाले कितने ही
कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने वाले सभी
सामाजिक कार्यकर्ता व नागरिकों की संख्या तो इससे कहीं अधिक है। पिछले
दिनों दिल्ली में परिवर्तन संस्था से जुड़े वरिष्ठ आरटीआई कार्यकर्ता
रवींद्र बलवानी की रहस्यमय स्थितियों में मौत भी विवाद व चिंता का विषय
बनी। उससे पहले संस्था की एक अन्य सदस्य पर भी घातक हमला किया गया था।
माओवाद के विस्तार के साथ, इस नाम पर शान्तिपूर्वक अन्याय व विषमता का
विरोध करने वाले अनेक कार्यकर्ताओं को भी मनगढं़त आरोपों के आधार पर
माओवादी बता उत्पीड़ित किए जाने के मामले बढ़े हैं। इस रूप में जेलों में
वरिष्ठ नागरिकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं, विशेषकर आदिवासियों की संख्या
बढ़ी है। गांधीवादी विचारों से प्रेरित हिमांशु ने पूरा जीवन छत्तीसगढ़
के आदिवासियों की सेवा में समर्पित कर दिया पर प्रशासन ने उनके मार्ग में
इतनी बाधाएं खड़ी की ताकि वे कार्य ही न कर सकें। सामाजिक कार्यकर्ताओं
को उत्पीड़न व अन्याय से बचाने में मानवाधिकार संगठनों की बड़ी भूमिका
रही है, पर इस समय मानवाधिकार संगठनों को अपने ही अग्रणी सदस्यों या
पूर्व सदस्यों की रक्षा में काफी समय लगाना पड़ रहा है। राष्ट्रीय स्तर
के मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल ने पहले अपने अग्रणी उपाध्यक्ष विनायक सेन
के लिए लंबा संघर्ष किया तो कुछ समय बाद राजस्थान में संगठन की प्रमुख
पदाधिकारी व महिला आंदोलनों की अग्रणी कार्यकर्ता कविता श्रीवास्तव व
उनके परिवार को अनावश्यक कार्रवाई से परेशान होना पड़ा। ऐसी कुछ
अन्यायपूर्ण वारदातों के साथ यह मांग भी तेजी से उठी है कि औपनिवेशिक राज
के दिनों में बने राष्ट्रद्रोह संबंधी कानून का उपयोग स्वतंत्र व
लोकतांत्रिक भारत में सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरुद्ध जिस तरह जारी है,
उस पर रोक लगनी चाहिए। जिस ढंग से इस कानून का दुरुपयोग कुडनकुलम परमाणु
संयंत्र का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे सैकड़ों नागरिकों के विरुद्ध हुआ,
उसका व्यापक विरोध हुआ है। दुनिया में करोड़ों लोग परमाणु ऊर्जा का विरोध
करते हैं, इसके लिए ठोस तथ्य व तर्क देते हैं, तो फिर हमारे देश में ही
परमाणु ऊर्जा के विरोध को राष्ट्रद्रोह क्यों मान लिया गया है? इस तरह तो
शान्तिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध के दरवाजे ही बंद हो जाएंगे। कुडनकुलम के
आसपास जिन्होंने अनिश्चितकालीन उपवास किया, उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई।
मजदूर व किसानों के अनेक जुझारू कार्यकर्ताओं को उत्पीड़न झेलना पड़ा है।
अनेक कार्यकर्ता जो अधिक जुझारू होते हैं, चाहे पूरी तरह शान्तिपूर्ण
रहें तो भी उन पर माओवादी या उग्रवादी होने का आरोप लगा दिया जाता है।
अल्पसंख्यकों के वाजिब मुद्दों को लोकतांत्रिक ढंग से उठाने वाले
कार्यकर्ताओं पर भी प्राय: 'आतंकवादी' का लेबल चिपकाने की जल्दबाजी देखी
गई है। कुछ स्थानों पर माओवाद व उग्रवाद का असर कुछ विशेष नहीं होता है
पर इस खतरे को बढ़ा-चढ़ा कर कुछ स्वार्थी तत्व इस कारण पेश करते हैं ताकि
इसके नाम पर अधिक बजट प्राप्त किया जा सके व फिर अधिक भ्रष्टाचार पनप
सके। इस तरह दमनकारी कानूनों व संवेदनशील क्षेत्रों की आड़ में एक ओर
अनियमितताएं बढ़ती हैं तो दूसरी ओर लोकतांत्रिक ढंग से आवाज उठाने वाले
नागरिकों के विरुद्ध हिंसा बढ़ती है। जहां विभिन्न स्तरों पर सामाजिक
कार्यकर्ताओं, जागरूक नागरिकों व बुद्धिजीवियों के विरुद्ध दमनकारी
कार्रवाई होती है, वहां प्राय: बहुत से नागरिकों विशेषकर युवाओं पर अनेक
गंभीर दंडात्मक कानूनी धाराएं लगाकर मनगढ़ंत या अतिशयोक्तिपूर्ण केस बना
दिए जाते हैं। युवाओं का भविष्य इन आरोपों में फंसाए जाने के कारण
अंधकारमय हो जाता है। पूरी योग्यता होने पर व मेहनत करने पर भी वे ऐसी
नौकरी नहीं पा सकते हैं जिसके हकदार हैं। ऐसी संभावनाओं के कारण प्राय:
युवाओं में जन-आंदोलनों में भागेदारी की प्रवृत्ति कम होती जा रही है। यह
केवल जन-आंदोलनों की नहीं, समग्र रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था की क्षति
है। क्योंकि जब तक जागरूक नागरिक व युवा सार्थक सामाजिक बदलाव के लिए आगे
नहीं आएंगे, तब तक समाज की बुराइयों व समस्याओं के उचित व शान्तिपूर्ण
समाधान की क्षमता नहीं बढ़ेगी। अत: लोकतंत्र की सफलता व समाज की रचनात्मक
क्षमता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि अनेक समस्याओं और अन्यायों के
विरुद्ध शान्तिपूर्ण जन-आंदोलनों को आगे बढ़ने का व सत्ताधारियों पर अपनी
सुनवाई के लिए जरूरी लोकतांत्रिक दबाव बनाने का अवसर मिलता रहे। प्रशासन
को चालाकी से जन-आंदोलनों को दबाने-कुचलने, भ्रमित करने का प्रशिक्षण
देना पूरी तरह अनुचित है। प्रशिक्षण तो इस बात का मिलना चाहिए कि प्रशासन
लोकतांत्रिक जन-आंदोलनों के प्रति अधिक संवेदनशील कैसे बने ताकि
लोकतांत्रिक तौर-तरीकों से समस्याएं सुलझाने व समाज को आगे ले जाने में
आम लोगों का विास बना रहे।
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