- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
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अन्ततः दिल्ली पुलिस ने श्याम रुद्र पाठक को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 105 और 151 के अन्तर्गत गिरफ़्तार कर ही लिया । पाठक पिछले 225 दिनों से सोनिया गान्धी के दिल्ली स्थित भारतीय घर के आगे धरना दे रहे थे । पाठक की मांग है कि उच्चतम न्यायालय समेत देश के सभी उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं में भी बहस करने की अनुमति दी जाये । फ़िलहाल कुछ उच्च न्यायालयों को छोड़कर शेष सभी में अंग्रेज़ी में ही बोलने की अनुमति है और इस नियम का सख़्ती से पालन किया जाता है ।
श्याम रुद्र पाठक के मौजूदा अभियान के बारे में बातचीत करने से पहले उनके बारे में कुछ जान लेना ज़रुरी है । पाठक 1980 में दिल्ली आई.आई.टी के छात्र थे । प्रवेश परीक्षा में उन्होंने अव्वल दर्जा हासिल किया था । एम.टेक की पढ़ाई ठीक ठाक चल रही थी कि अन्तिम वर्ष में अडंगा लग गया । पाठक ने अपने प्रकल्प की रपट हिन्दी में लिख कर जमा करवा दी । शायद तब चेतन भगत के उपन्यास पर थ्री इडियट्स फ़िल्म नहीं बनी थी । संस्थान ने पाठक को डिग्री देने से इंकार कर दिया । मामला संसद तक पहुँचा , तब जाकर पाठक को डिग्री मिली । उन्होंने रपट को अंग्रेज़ी में लिखने से इंकार कर दिया , लेकिन इसके साथ ही अन्याय से लड़ने के लिये उन्होंने सांसारिक एषणाओं से भी मुक्ति प्राप्त कर ली । 1985 में उन्होंने मोर्चा जमा दिया कि आई .आई.टी प्रवेश परीक्षा भारतीय भाषाओं में भी होनी चाहिये । यह मोर्चा लम्बा चला । 1990 में जाकर भारत सरकार भारतीय भाषाओं के पक्ष में झुकी और पाठक की जीत हुई ।
अबकी बार पाठक जी का मोर्चा न्याय की भाषा बदलवाने के लिये है । अपने देश में बडी कचहरी की भाषा अंग्रेज़ी निश्चित की गई है । पाठक चाहते हैं कि यहाँ का न्याय भी भारतीय भाषाओं में बोले । संविधान बनाने वालों को भी इसका अंदेशा रहा होगा कि भविष्य में लोग न्याय को भारतीय भाषा में बोलने के लिये विवश कर सकते हैं , इसलिये उन्होंने भी पक्की व्यवस्था संविधान में ही कर दी कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय की भाषा अंग्रेज़ी , केवल अंग्रेज़ी ही रहेगी । अपने देश में नागिरक को न्याय की रक्षा करते हुये फांसी प्राप्त करने का अधिकार है , लेकिन फांसी पर लटकने से पहले अपनी भाषा में यह जानने का अधिकार नहीं है , कि उसे फांसी किस लिये दी जा रही है । न्याय अंधा होता है , यह तो विश्व प्रसिद्ध है , लेकिन भारत में न्याय गूंगा भी है , क्योंकि वह इस देश की भाषा में नहीं बोलता । राम मनोहर लोहिया के शब्दों में कहना हो तो वह जादूगर की भाषा में बोलता है । जादूगर की भाषा दर्शकों के मन में आतंक तो पैदा कर सकती है , लेकिन समझ पैदा नहीं कर सकती । अंग्रेज़ों को तो , इस देश के लोगों के मन में न्यायिक आतंक पैदा करने की ज़रुरत थी , लेकिन लोक मत से चुनी सरकार न्याय के नाम से आतंक क्यों पैदा करना चाहती है , यह किसी की समझ से भी परे है । कई साल पुरानी एक घटना ध्यान में आ रही है ।मैंने नई नई वकालत शुरु की थी । धारा 107/151 में पुलिस ने एक जाट को गिरफ़्तार किया था । गाँव में जब दो फरीकों में कोई मामूली सा झगड़ा भी होता है , तो आम तौर पर पुलिस लोगों को इसी धारा में पकड़ती है । इसमें पुलिस को भी सुविधा रहती है , क्योंकि अभियुक्त को कार्यकारी मजिस्ट्रेट की कचहरी में ही पेश करना होता है । इस केस में जमानत लगभग निश्चित होती है और केस की उम्र ही छह महीने होती है ।वकील को भी इस प्रकार के मुकद्दमों में ज्यादा बोलने की जरुरत नहीं होती , केवल जमानत के कागज ही भरने होते हैं । मैं जब एस.डी.एम के कार्यालय में जाने लगा तो एक वरिष्ठ वकील ने मुझे इशारे से बुलाया और पूछा कि इस केस में कितनी फीस ली है ? मैंने बता दिया । तब उसने अपने अनुभव के आधार पर सलाह दी । उसने कहा , अन्दर जाकर पंजाबी में बोलना शुरु न कर देना । चार पांच मिनट कुछ न कुछ अंग्रेजी में जरुर बोलते रहना ।मैंने कहा , बाऊ जी (पंजाब में कचहरी में वक़ील को बाऊ जी कहा जाता है) 107/151के केस में भला बोलना ही क्या होता है । वही चार बातें होती हैं , पंजाबी में भी कह दूँगा तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा ? उन्होंने कहा कि तुम्हें तो नहीं पड़ेगा , पर जाटों को पड़ जायेगा । उनको पता चल जायेगा कि इन मुक़द्दमों में केस के बारे में वे चार बातें तो वे स्वयं ही पंजाबी में कह सकते हैं । फिर हमें कोई फीस क्यों देगा ? इसलिये कुछ न कुछ अंग्रेजी में बोलना बहुत जरुरी है ताकि सायल को आतंकित कर उससे मोटे पैसे बसूले जा सकें । मुझे तुरन्त अंग्रेजी का महत्व समझ में आ गया । अंग्रेजी कचहरी में सायल को डराने के काम आती है । उससे कानून और न्याय का रौब बरकरार रहता है ।मैंने अपने सायल से फ़ीस के पाँच सौ रुपये लिये थे , जो उन दिनों के हिसाब से भी और केस की धाराओं के हिसाब से भी ज़्यादा थे । अब इस फ़ीस का औचित्य सिद्ध करने के लिये मुझे कुछ न कुछ ऊटपटांग अंग्रेज़ी में बोलना ही था । न्याय और सायल के बीच में से यदि अंग्रेज़ी का पर्दा हट गया तो न जाने किन किन का मायावी संसार मिट्टी में मिल जायेगा ।
अब पाठक जी उसी पर्दे को हटाने की जिद पकड कर बैठ गये हैं । लेकिन पाठक की एक दिक़्क़त है । वे सीधे न्यायपालिका से बात नहीं कर सकते । क्योंकि उनका संकल्प है कि वे भारत की भाषा में बात करेंगे , जिसका इन्दराज संविधान की आठवीं सूची में दर्ज है और उधर न्यायपालिका भी अपने सम्मान को बचाने के लिये पूरी तरह मोर्चाबन्दी किये हुये है । उसका सम्मान अंग्रेज़ी से ही होता है । भारतीय भाषाओं का छींटा भी पड़ जाने से वह सम्मान उसी प्रकार फट जाता है जिस प्रकार दूध में दही का छींटा पड़ जाने से वह फट जाता है ।न्यायपालिका ने अपने सम्मान और रुआब की ख़ातिर सारे देश को गूँगा बना दिया है । न्याय मंदिर में जाते ही देश के आम नागरिक के मुँह पर ताला लग जाता है । भारतीय भाषाओं को सुनने से न्याय मंदिर की पवित्रता नष्ट होती है । लेकिन पाठक ज़िद्दी ठहरे । जिस तरह कभी महात्मा गान्धी ने दलितों के मंदिर प्रवेश के लिये आन्दोलन चलाया था उसी तरह पाठक भारत माता के न्याय मंदिर में भारतीय भाषाओं के प्रवेश के लिये हठ कर रहे हैं ।
तर्क दूसरे पक्ष का भी मज़बूत है । कम्पनी बहादुर और बाद में अंग्रेज़ बहादुर तो विवशता में इस देश को छोड़ कर चले गये । अब इस देश में जो उनके वारिस हैं , उनके पास उन पूर्वजों की कितनी चीज़ें बची हैं ? हमने तो लार्ड माऊंटबेटन को भी देश में संभाल कर रखने की कोशिश की थी । उन्हीं को अपना गवर्नर जनरल भी बना लिया था ।लेकिन कितने दिन रख पाये ? दिल पर पत्थर रख कर लंदन भेजना पड़ा । फिर नागार्जुन बाबा के शब्दों में हमने आज़ाद भारत में भी इंग्लैंड की महारानी की पालकी ढोई , क्योंकि नागार्जुन के ही शब्दों में,'आज्ञा भई जवाहर लाल की' । लेकिन वह भी कितनी बार ढो पाते ? अब ले देकर उनकी याद , यह एक न्याय व्यवस्था बची है । क्या इसको भी गँवा दें ? इतने कृतघन तो हम नहीं हैं । इस न्याय व्यवस्था की भारत में रहने की एक ही शर्त है कि यह अंग्रेज़ी में बोलती है , अंग्रेज़ी में ही सुनती है और अंग्रेज़ी में फाँसी पर लटकाने का आदेश देती है । इस व्यवस्था के आगे पूरा राष्ट्र गूँगा हो जाता है । लेकिन उससे क्या ? इस देश का गूँगा रहना ही ठीक है । लोकमान्य तिलक , महात्मा गान्धी , डा० हेडगेवार ने इसे अपनी भाषा में बोलने का साहस बँधा दिया था तो इसने अंग्रेज़ बहादुर को ही सात समुद्र पार पहुँचा दिया । इस लिये इस का चुप रहना ही हितकर है । जब यह बोलता है तो सिंहासन हिल जाता है । सत्ताधीश धूल चाटते हैं । इस लिये इस देश को अंग्रेज़ी के भाषायी आतंक से डरा कर चुप रखना ही शासक वर्ग के हित में है । शायद इसीलिये पूरा शासक वर्ग रुद्र के खिलाफ मोर्चा लगा कर बैठा है । देश के आम आदमी को उसकी औक़ात में रखना ही श्रेयस्कर है । आज न्याय व्यवस्था को भारतीय भाषाएँ बोलने के लिये कह रहा है , कल आभिजात्य शासक वर्ग को भी भारतीय भाषा लिखने बोलने को कह सकता है । इस लिये पूरा तंत्र पाठक को पहले मोर्चे पर ही शिकस्त देने के लिये आमादा है ।
पाठक चार दिसम्बर 2012 से सत्याग्रह पर बैठे हैं । राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक सभी को चिट्ठी लिख चुके हैं । लेकिन ज़रुर चिट्ठी हिन्दी में लिखते होंगे और वहाँ मोर्चा हिज मैजस्टीज गवर्नमैंट ने संभाला हुआ है । थू ! वर्नक्यूलर में चिट्ठी ? इसे तो छूने से भी सरकार की शान को बट्टा लगता है । अपने प्रधानमंत्री तो आक्सफोर्ड/कैम्ब्रिज तक जाकर गोरे महाप्रभुओं का धन्यवाद करके आयें हैं कि उन्होंने भारत को बहुत कुछ दिया है । अज्ञान के तम से निकाल कर ज्ञान की ज्योति में पहुँचा दिया है । जो उन गोरे शासकों ने दिया है , उनमें से सबसे बड़ी सौग़ात तो अंग्रेज़ी ही है । अब उसको कैसे छोड़ दें ? पुराने मालिकों का छोड़ा हुआ अंग्रेजी ओवरकोट भरी गर्मी में भी पहन कर पूरा शासक वर्ग अपनी पीठ थपथपा रहा है । लेकिन इसके बावजूद श्याम रुद्र पाठक ने भारतीय भाषाओं का अपना मोर्चा संभालने से पहले सोनिया गान्धी के सिपाहसलारों से बाकायदा बातचीत की । आस्कर फ़र्नांडीस से पांच दौर की बातचीत गुई । उन्होंने सारी बात सुन कर और जितनी उनको समझ में आई ,उतनी समझ कर उसके अनुसार अपनी रपट सोनिया गान्धी को दी । फिर उन्होंने उस समय के विधि मंत्री सलमान खुर्शीद को अपनी रपट दी । आख़िर मामला न्याय व्यवस्था से जुड़ा था , इसलिये सलमान खुर्शीद के पास जाना ज़रुरी था । लेकिन जैसा कि रहीम जी ने कहा है–
कर लै, सूंघी , सराही कै , सभी रह गयौ मौन
रे गंधी , मति अंध तू , गँवई गाहक कौन ?
लेकिन यहाँ बस एक ही अन्तर है । पाठक गाँव के लोगों की भाषा की लडाई लड रहे हैं । इस लिये वहाँ तो भारतीय भाषाएं बोलने वाले करोंडों नागरिक इस लड़ाई के साथ है , लेकिन जहां सत्ता सिमटी हुई है , वहाँ सभी मौन हैं । वहाँ श्याम रुद्र पाठक के प्रयास की प्रशंसा और सराहना तो सभी ने की , लेकिन उस के बाद मौन हो गये ।न सोनिया गान्धी कुछ बोलीं , न आस्कर फ़र्नांडीस और न ही सलमान खुर्शीद । सभी मौन हैं । वे भी जो भारतीय भाषाओं के नाम पर राजनीति करते हैं । किसी को नहीं लगा कि भारतीय भाषाओं की यह लड़ाई भारत की अस्मिता और पहचान की लड़ाई है । इसमें हरावल दस्ता बनकर मातृभाषा का रिन उतारना चाहिये । इस सन्नाटे में ही अंत में ठीक मौक़ा देख कर शासक वर्ग ने पाठक को तिहाड़ में पहुँचा दिया । भारतीय भाषाओं का स्थान इस देश में जेल ही हो सकता है । वहीं पाठक बैठे हैं । बाहर अंग्रेज़ी का मज़बूत सुरक्षा दस्ता पहरा दे रहा है । भारत सरकार ने देश में भाषायी आतंक फैलाने वाली अंग्रेज़ी को जैड सिक्योरिटी प्रदान की हुई है । यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार सरकार जम्मू कश्मीर में अलगाव का झंडा उठाये आतंकवादियों को जैड सिक्योरिटी प्रदान करती है । सरकार की नीति का प्रश्न है । आतंकवाद के सुरक्षा देने में वह भेदभाव नहीं करता । फिर आतंक चाहे अंग्रेज़ी का हो या लश्कर-ए-तैयबा का ।
लेकिन एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है । श्याम रुद्र पाठक या यों करिये कि भारतीय भाषाओं ने अपने अधिकार की मांग के लिये सोनिया गान्धी के भारतीय घर के आगे ही धरना क्यों दिया ? दूसरे हिस्से का उत्तर तो आसान है । कोई भी दे सकता है । सोनिया गान्धी का इटली वाला घर बहुत दूर है । वहाँ जाने के लिये भारतीयों को वीज़ा लेना पड़ता है । इसलिये वहाँ जाकर सत्याग्रह करना संभव नहीं था । इसी कारण से उनके भारत के घर का चयन किया गया होगा । लेकिन सोनिया गान्धी के घर के आगे ही क्यों ? हो सकता हो कि भारतीय भाषाओं के समर्थकों को लगता हो कि गोरी नस्ल के पुराने हाकिमों की विरासत असल में अभी भी भारत में गोरी नस्ल ने ही हिफाज़त से सम्भाली हुई है । अपने घरेलू लोग तो उस समय भी दरबारियों की भूमिका में ही थे और आज लगभग सात दशक बाद भी उसी भूमिका में सिर पर मोर पंख लगाये खीसें निपोर रहे हैं । लेकिन आम आदमी तो इतने साल में जान ही गया है कि भारत की नई हर मैजिस्टी का निवास कहाँ है । तो एक बार फिर लड़ाई वहीं से क्यों न शुरु की जाये । देखना है कि अंग्रेज़ी द्वारा गूँगा बना दिया राष्ट्र क्या एक बार फिर बोलना शुरु करेगा । इतिहास गवाह है जब लोग अपनी भाषा में बोलना शुरु कर देते हैं तो हिज मैजिस्टी हो या हर मैजिस्टी , सभी के तम्बू एक झटके से उखड़ जाते हैं । लेकिन फ़िलहाल तो श्याम रुद्र पाठक जेल में है और आचार्य रघुवीर व राम मनोहर लोहिया की विरासत को संभालने का दावा करने वाले मौन हैं ।लेकिन पाठक तिहाड में भी मुखर हैं ।उनका कहना है कि अंग्रेजी हमारे ऊपर शासन करने वाले विदेशियों की भाषा है। अभिजात्य वर्ग की इस भाषा को खत्म करने के लिए उनका सत्याग्रह चलता रहेगा । यह सत्याग्रह केवल पाठक का नहीं है , बल्कि भारतीय अस्मिता व पहचान का है । पाठक तो इसके माध्यम बने हैं ।
· लेखक परिचय
यायावर प्रकृति के डॉ. अग्निहोत्री अनेक देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनकी लगभग 15 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पेशे से शिक्षक, कर्म से समाजसेवी और उपक्रम से पत्रकार अग्निहोत्रीजी हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में निदेशक भी रहे। आपातकाल में जेल में रहे। भारत-तिब्बत सहयोग मंच के राष्ट्रीय संयोजक के नाते तिब्बत समस्या का गंभीर अध्ययन। कुछ समय तक हिंदी दैनिक जनसत्ता से भी जुडे रहे। संप्रति देश की प्रसिद्ध संवाद समिति हिंदुस्थान समाचार से जुडे हुए हैं।
- शिवेन्द्र मोहन सिंह says:
भारतीय न्यायालय शर्म करो….. कम से कम अपनी भाषा तो बोलो, अपने देश में बेगानों की भाषा. तुम्हें शर्मिंदा होना चाहिए, दूसरों के बजाए खुद ही पहल करो, हर भारतीय तुम्हे सिर आँखों पे बिठाएगा.
- प्रवीण जैन says:
जागो वर्ना भारत भारत नहीं रहेगा और इण्डिया से जाकर अमरीका गुलाम बना देगी ये सरकार. हम सब को श्यामरुद्र जी का भरपूर समर्थन करना चाहिए.
http://hamaribhasha2050.blogspot.in/
- vinay says:
बहुत खूब .. बेहद सटीक शब्दों में आज की न्याय व्यवस्था की उन ज़मीनी खामियों को उजागर किया है जिनसे शायद सबसे ज्यादा भारत का आम नागरिक परेशां होता है !
मे पाठक के इस आन्दोलन में खुद को उनसे जुदा (Judda) हुआ महसूस करता हूँ.
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अपनी भाषा और अपनी आन को लड़ते रहे उनके हिस्से लाठियों की मार है इस देश में ?
http://www.pravakta.com/their-own-language-and-share-their-pride-fighting-hitting-the-clubs-in-this-country?utm_source=feedburner&utm_medium=email&utm_campaign=Feed%3A+pravakta+%28PRAVAKTA+%E0%A5%A4+%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%95%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%29
सरकार है इस देश में
आम है जो आदमी लाचार है इस देश में
जीतने का जश्न अब शातिर मानते हैं यहाँ
जो हैं सच्चे उनकी केवल हार है इस देश में
जिसने बोला सत्य उसको जेल में ठूंसा गया
इस तरह जनता पे यह उपकार है देश में
काट लेती है जुबां कुर्सी अगर सच बोलिए
किनको अब जम्हूरियत से प्यार है इस देश में
अपनी भाषा और अपनी आन को लड़ते रहे
उनके हिस्से लाठियों की मार है इस देश में
नेता, अफसर और अपनी ये पुलिस अपनी कहाँ
सारा सिस्टम आजकल बीमार है इस देश में
क्रांतिकारी लोग थे उनको मिले अब गालियाँ
ऐसे लोगों की तो अब भरमार है इस देश में
जिसको हम नायक समझते थे वही पापी मिला
अब शरीफों का ही बंटाढार है इस देश में
थी गुलामी तब तो बाहर के लुटेरे थे यहाँ
जो था अपना अब वही गद्दार है इस देश में
देश जैसे चल रही दूकान कोई सेठ की
हम कदम पर लूट का बाज़ार है इस देश में
गिरीश पंकज
· लेखक परिचय
सुप्रसिद्ध साहित्यकार गिरीशजी साहित्य अकादेमी, दिल्ली के सदस्य एवं रायपुर (छत्तीसगढ) से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका सद्भावना दर्पण के संपादक हैं।
Many media people are trying to make proper Hindi words vanish or LUPT. Proper Hindi words are available still Hindi media people prefer to use Urdu or English words in Hindi. Some Examples are:
Wrong Word Proper Hindi Word
Mehbhoosh – Surkshit
Faayadaa - Laabh
Kasrat – Vyaam
Sakoon – Shanti
Shaadat – Balidaan
Takat – Shakti
Katal - Hatya
Khudkashi - Atam Hatya
Madenazar – Dristi
Maksad – Uddeshyaa
Tabbazzo – Dhyan
Jasan – Utsav
Masaal - Udharan
Manzar - Drishyaa
Kabool – Swaikaar
Jaayaz - Uchit
Mukhatib – Sammukh
Buniyaad – Aadhar
Fateh – Vijay
Shirkat – Shamil
Dastkhat – Hatakshar
Izzaffa – Vridhi
Tahat – Antargat
Ehsas - Anubhav
Maslaa – Samasyaa
Maslan - Udharan
Naakaam – Asafal
Khuskismat – Bhagyashaali
Trakki – Pragati Unnati
Massakat – Parishram
Kareeb – Nikat
Imtihaan – Parikhsha
Shadat - Balidaan
Mutabla
Khair Makdam
Murabbat
There are several thousand Urdu words which are used in Hindi. Sad thing is that many saints and priests who are supposed to know proper Hindi use such Urdu words along with English words in Hindi. People who know proper Hindi should Telephone or send message by any means to media people that they should use proper Hindi words in Hindi.
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