Friday, August 30, 2013

न्याय की भाषा हिन्दी बनाम देश की दूसरी आजादी

                                  न्याय की भाषा हिन्दी बनाम देश की दूसरी आजादी

 हिंदी हमारी राजभाषा है। पर वास्तव में राजभाषा अभी तक अंग्रेजी ही है। देश के सभी उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय की भाषा तो पूर्णत: अंग्रेजी है। इन सभी न्यायालयों में वादों की सुनवाई और आदेशों का निष्पादन अंग्रेजी में ही होता है। अब इस प्रकार के न्यायालयों के अंग्रेजी मोह को समाप्त करने के लिए श्याम रूद्र पाठक जैसे एक समाजसेवी ने आवाज बुलंद की है, और मांग की है कि देश की जनता को न्याय  उसकी अपनी भाषा में मिलना चाहिए। भारत की केन्द्र सरकार को या किसी राज्य की सरकार हो भारत के उच्च न्यायालय और सर्वाेच्च न्यायालय इन्हें समय समय पर सही सलाह देते रहे हैं, और कई बार तो सरकारों के बनाये गये कानूनों तक को न्यायालयों ने असंवैधानिक घोषित किया है। परंतु अंग्रेजी को न्यायालयों से हटाने के प्रति न्यायालय अभी गंभीर नजर नही आते। अंग्रेजी का इतना अधिक महत्व जहां हमारी पराधीनता की मानसिकता को प्रकट करता है, वहीं यह भी स्पष्टï करता है कि हम अपनी एक अपनी एक राजभाषा को राष्ट्रभाषा बनाने पर गंभीर मतभेद रखते हैं, और मतभेद जब तक समाप्त हों, तब तक हम इस अंग्रेजी नाम की उधारी भाषा से काम चलाने के लिए विवश हैं, और एक  'उधारी भाषा' लगभग स्थायी रूप लेती जा रही है।

सामान्यत: ऐसा होता है कि जब किसी पद के दो सशक्त प्रत्याशी हमारे पास होते हैं तो किसी भावी अनिष्टï से बचने के लिए उन दोनों से सुलह कराके सयाने लोग किसी तीसरे  दुर्बल व्यक्ति को उस पद पर उसे कार्यकारी के रूप में बैठा देते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात हिंदी का अधिक विरोध नही था। बस, जैसे हमारे 'राष्ट्रीय चाचा' ने उस समय लार्ड माउंटबेटन और लेडी माउंटबेटन को इस देश का अतिथि बनाकर कुछ समय के लिए रोक लिया था वैसे ही अपनी प्रिय भाषा अंग्रेजी को कुछ काल के लिए राजभाषा के रूप में कार्य करने के लिए रोक लिया था। चाचा की मित्र लेडी माउंटबेटन तो देश से चली गली परंतु लेडी इंग्लिश नही गयी। वह आज तक बैठी है, और अपना प्रसार किये जा रही है।

भाषा भाषा ही होती है-उसका अति उग्र होकर किसी अन्य भाषा का विरोध करना उचित नही होता, ऐसा तर्क अंग्रेजी समर्थक देते हैं। बहुत से लोग इस बात से सहमत हो जाते हैं कि अंग्रेजी हमें आधुनिकता के साथ जोड़कर चलती है, वह खुलेपन और प्रगतिशीलता की पहचान है। इसलिए किसी हिंदी जैसी रूढ़िवादी भाषा से जुड़ने की आवश्यकता नही है। अत: अंग्रेजी देश में चल रही है तो कोई बुरी बात नही है। ऐसी सोच 'भाषायी धर्मनिरपेक्षता' है, और हम धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े पक्षधर के रूप में विश्व में जाने जाते हैं। इसके लिए अपनी भाषा की बलि देनी हो तो हम दे देंगे, अपने इतिहास की, अपने अतीत की और अपने स्वाभिमान की बलि देनी हो तो वो भी दे देंगे।

अब तनिक गंभीर होकर विचार करें कि राजभाषा अंग्रेजी ने इस देश को क्या दिया है, और इसका क्या इससे छीन लिया है? जब हम इस विषय में विचार करते हैं तो पता चलता है कि अंग्रेजी ने पिछले 66 वर्षों में भारत का भारत से बहुत कुछ छीना है। इसे दिया बहुत कम है और इससे लिया बहुत अधिक है। कैसे?

सीधी सी बात है कि विश्व की प्रत्येक भाषा (बोली) जिस आंचल में जन्मी, पनपी और बढ़ी होती है उस पर उसी आंचल का, उसी आंचल की संस्कृति का, उसी आंचल के इतिहास का और और उसी आंचल की सभ्यता का रंग चढ़ा होता है। प्रत्येक भाषा के अपने इतिहास नायक होते हैं, अपने  आदर्श होते हैं और अपनी ही मान्यताएं होती हैं। यह भी सर्वमान्य सत्य है कि विश्व का प्रत्येक व्यक्ति भी अपनी-अपनी मान्यताओं, अपने अपने इतिहास नायकों व अपने अपने आदर्शों के प्रति समर्पित होता है, उनसे बंधा होता है। इसलिए चाहे तो कोई भाषा हो, चाहे कोई ऐसा व्यक्ति हो और चाहे कोई ऐसे व्यक्तियों का समुदाय या सम्प्रदाय हो वह अपनी मान्यताओं, अपने इतिहास नायकों और अपने आदर्शो को विश्व की मान्यताओं, विश्व इतिहास के, नायकों व विश्व आदर्शों के रूप में स्थापित करने के लिए संघर्षरत रहता है। प्रयासरत रहता है। इसलिए स्वाभाविक है कि अंग्रेजी कालिदास को भुलाएगी और शैक्सपीयर को स्थापित करेगी। वह गौतम, कणाद, कपिल, जैमिनी, पतंजलि से तुम्हें काटेगी और न्यूटन, डाल्टन आदि से आपका परिचय कराएगी। यही स्थिति उर्दू, फारसी, अरबी भाषाओं की है। वो भी अपने इतिहास नायकों को और अपनी मान्यताओं को ही विश्व में प्रसारित करना चाहती है। इनमें से प्रत्येक भाषा अपने एक निश्चित क्षेत्र में परिक्रमा कर रही है। ये सारी भाषाएं ही ग्रह नही अपितु उपग्रह हैं। इन सबका ग्रह या प्रेरणा स्रोत अथवा इनकी जननी तो संस्कृत है। इस तथ्य को सब भाषाविद मानते हैं, परंतु सबके सब बिना केन्द्र के परिधि बनाने का प्रयास कर रहे हैं।

हम कितने दुर्भाग्यशाली हैं कि संस्कृत के रूप में केन्द्र तो हमारे पास है और हम फिर भी बिना केन्द्र के परिधि बनाने की वैश्विक मूर्खता में सम्मिलित हो रहे हैं। सारा सभ्य संसार नादानी दिखा रहा है और हम भी उस नादानी में सम्मिलित हो रहे हैं। अंग्रेजी बाल्मीकि को नही जानती, राम और सीता को नही जानती, कृष्ण को पहचानती नही है, और वेदों को मानती नही है। वह सूरदास तुलसी , मैथिलीशरण गुप्त, जय शंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, रामधारी सिंह दिनकर आदि को केवल 'गडरिया' मानती है और इसलिए भारत के सांस्कृतिक मूल्यों को किसी भी प्रकार उच्च स्थान देने की विरोधी है। वह भारत के सभी नागरिकों को पराजित पूर्वजों की संतान कहती है और यहां क्षेत्रीय और भाषायी विवादों को तूल देकर या आर्य-अनार्य की या जातिवाद की दीवारें खड़ी करके भारतीय राष्ट्रीय समाज में विखण्डन उत्पन्न किये रखना चाहती है। तब भी हम उसी की जय बोल रहे हैं तो हमसे अधिक अभागा विश्व में और कौन होगा? हमने पिछले 66 वर्षों में अंग्रेजी की इस सोच के कारण अपने गौरवपूर्ण अतीत को सिवाय भुलाने अथवा उसे कम करके आंकने के अलावा और किया ही क्या है?

हम विश्व की सभी भाषाओं (बोलियों) का सम्मान करें-यह एक अलग तथ्य है और हम अपनी राज भाषा के प्रति सम्मान भाव रखें यह एक अलग बात है। विश्व की अन्य भाषाएं भी सीखी जा सकती हैं, सीखनी भी चाहिए, परंतु हिंदी के प्राणों के मूल्य पर नही। अब श्याम रूद्र पाठक एक नाम उभर कर आया है, जो देश के उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में न्याय की भाषा अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी और भारतीय भाषाओं को बनाने की मांग को लेकर चर्चित हुआ है। पाठक भाई का कार्य निश्चित रूप से सराहनीय है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय पाठक की आवाज को भारत की आत्मा की एक जनहित याचिका के रूप में स्वीकार करे और समझे कि देश की आत्मा की पुकार क्या है? बिना अपनी भाषा के देश मर रहा है, यहां उजालों का कत्ल हो रहा है और अंधेरों को सिंहासन पर बैठाकर उनकी जय-जयकार की जा रही है। उल्टी चाल है, उल्टी सोच है, तो उल्टे ही परिणाम भी आ रहे हैं। निश्चित रूप से आज की यह सबसे बड़ी आवश्यकता है कि भारत के लोगों को न्याय भारत की भाषा में मिलना चाहिए। विशेषत: तब जब कि स्वाधीनता संग्राम के काल में हिंदी इस देश की संपर्क भाषा बनी थी और अंग्रेजी के प्रति उस समय घृणा का परिवेश बना था। अत: हिंदी राष्ट्रीय आंदोलन की वो प्रतीक है जो हमें राष्ट्रीय गौरव का बोध कराती है और अंग्रेजी इसके सर्वथा विपरीत है। हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने कितनी ही बार हम देश की सरकार को मर्यादित आचरण के निष्पादन हेतु ही नही अपितु जनहित के विपरीत बनाये गये उसके कानूनों को भी निरस्त करने या वापस लेने के लिए विवश किया है। संसद में बैठे हमारे जनप्रतिनिधि वास्तव में जनप्रतिनिधि होने की आभा खो चुके हैं। ये किसी क्षेत्र के, किसी भाषा के या किसी दल के जनप्रतिनिधि हैं, पर भारत के प्रतिनिधि नही है। ऐसे में इन संकीर्ण लोगों से ये अपेक्षा नही की जा सकती कि ये देश के भले में कोई निर्णय ले पाएंगे। तब मा. सर्वोच्च न्यायालय को ही पहल करनी चाहिए। न्याय के इस सबसे बड़े मंदिर से हर राष्ट्रभक्त देशवासी यही चाहता है कि हमें न्याय हमारी भाषा में देकर आज तक का सबसे बड़ा न्याय करो। स्वतंत्रता की 66वीं वर्षगांठ पर यदि मा. सर्वोच्च न्यायालय देश की इस मांग को या प्रार्थना को स्वीकार करता है तो सचमुच देश ऐसा अनुभव करेगा कि जैसे उसे दूसरी आजादी मिल गयी है। मा. सर्वोच्च न्यायालय समझे कि अब देश स्वतंत्र है और स्वतंत्र देश में जनभावनाओं को समझकर तुरंत न्याय निष्पादित करना या देना ही कल्याणकारी राज्य के अस्तित्व का निश्चायक प्रमाण हेाता है। लोकतंत्र में आवाजें दबाई या उपेक्षित नही की जाती हैं, अपितु सुनी जाती हैं। जब पूरा देश एक स्वर कुछ मांग रहा है तो उसे अनसुना नही किया जाना चाहिए। हमें गूंगी बहरी सरकारों को सुनने समझने की क्षमता देने वाले  'न्याय मंदिर' से अपेक्षा करनी चाहिए कि वो श्याम रूद्र पाठक को न्याय देकर इस राष्ट्र को भी उपकृत करेगा।

राकेश कुमार आर्य

·         लेखक परिचय


राकेश कुमार आर्य

 

'उगता भारत' साप्ताहिक अखबार के संपादक; बी..एल.एल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता राकेश जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक बीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में 'मानवाधिकार दर्पण' पत्रिका के कार्यकारी संपादक व 'अखिल हिन्दू सभा वार्ता' के सह संपादक हैं। सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। दादरी, .प्र. के निवासी हैं।

 

 

 

From: sharad mistry  - sharad.mistry@gmail.com;

भारतीय भाषाओं का मोर्चा: गूँगे राष्ट्र को बोलने हेतु प्रेरित करने की लड़ाई

 


मनुष्यके उत्थान और उन्नतिमें भाषा एक कुदरती देन है जो महत्त्वकी भूमिका भी अदा करती है; भाषसे ही हर समाज और देश की सभ्यता और संस्कृति भी पनपती है. भारतीय संस्कृति और सभ्यता का मुख्या आधार है संस्कृत भाषा, और इस दैवी भाषासे पनपी अन्य प्रादेशिक भाषाएँ, जिनमेंसे हिंदी एक महत्वकी भाषा रही है जिससे भारत हिन्दुस्तान के नाम से भी विश्वमे जाना जाता है.

विविध मोर्चो पर लड़ते विभाजित और गूंगे भारतीयों के लिए यह एक एहम - महत्त्व की - लड़ाई है. पाश्चात्य और इटली की मानसिकतासे ग्रस्त आजके इन्ड्या - न भारत, न हिन्दुस्तान - की नशीली सरकार को जगाकर याद दिलाकर भिडाने का यह वक्त है. लोकतन्त्रमें सरकार बनती है आम जनता के पैसे से और आम जनता के हित के लिए यह बात जनता भी भूल ही गयी है.

अज्ञान बढ़ाकर, अन्धकार में रखने वाली और मानसिक बलात्कार करने वाले सरकारीकरण का सिकंजा और सैलाब विश्व के कई देशों में बढ़ता जा रहा है. अमरीका और अन्य पाश्च्यात्य देशोका अन्धानुकरण करने वाले इन्ड्यामें भी देखा जा सकता है और अनुभव भी किया जा सकता है. इस बढ़ते सरकारीकरण से आम जनता को गुमराह किया जा रहा है, दबाकर, डरा-धमका कर भेड-बकरीओं की तरह रखा जा रहा है... और यह मुमकिन हो सका है सिर्फ और सिर्फ अंग्रीज़ी भाषा वाले जुडीश्यरी के आधार पर. 
 
माननीय श्याम रुद्र पाठकजी ने बलात्कारी अंग्रेजी भाषा के विरोधमें भारतीय भाषाओंके महत्त्व के इस अभियान को छेड़ा है, और गिरीश पंकज जी ने श्याम रूद्र पाठकजी के इक अभियान को आंतर्जाल द्वारा उपलब्ध करा कर सबको सोचने और कुछ करने पर मजबूर तो जुरूर किया है; परन्तु इस अभियान को कैसे बलिष्ठ किया जा सकता है इसका सही मार्गदर्शन तो भारतीयता को मानने-समजने-जीने वाले माननीय विचारवंतों, लेखकों, धार्मिक-सामाजिक नेताओं और अभियंताओं जहा कहीं भी हो वो ही ज्यादा दे सकते है.

इस मोर्चे पर अगवाई कर सके ऐसी इनकी एक-जुट सोच, आवाज और राहबरी का इंतज़ार है. 

शरद मिस्त्री
९८२१४०४४११

ALL MUSALMANS: MUMBAI GANG RAPED ACCUSED
1. Quote:
DEAR ALL,
 
THE MOSTLY COMMUNAL, CRIMINAL AND COWARD POLITICIANS OF INDIA ALONG WITH THEIR PAID MEDIA PLAYING DIRTY TO EXPOSING THE NAMES RESPONSIBLE FOR MUMBAI GANGRAPE.  AS HAPPENING ALL OVER  THE WORLD OUTSIDE THE MUSALMAN COUNTRIES AND MORE SO IN INDIA DUE TO VOTE BANK POLITICS, THIS TIME ALSO THEY ARE ALL BLOODY MUSALMANS. THEY ARE-
 
1. ASAD
2. JAFFAR
3.RIZWAN
4. SAJID
ALTAF
 
IS THERE ONE GUTSY POLITICIAN IN INDIA WHO CAN STAND UP AND SAY RAPES AND GANGRAPES IS A SERIOUS PROBLEM IN INDIA AND THE MUSALMAN COMMUNITY NEEDS TO BE WATCHED 24+7 FOR THEIR PRO-ACTIVE ROLES JUST LIKE THEIR ROLES IN WORLD-WIDE TERRORISM.
AMIT BHADHURI
 
2. COMMENT: These acts belong in the nature of the beast ( the Islamist-beast ). The entire history of Islam, is blessed with stories of terror, torture, tyranny, rapes & gang-rapes. These are the gifts that, Islam has unleashed upon the whole world, in the name of Islam. These tales must be told, in all their gory & glory, without restraint or reserve.
 
3. Regarding gutsy politicians in India, who have preserved their honor, honesty, righteousness, who have renounced/denounced the above sickening acts of Moslems, do not exist in India.
 
Surinder Paul Attri

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