भाकपा (माले) महासचिव कामरेड दीपांकर भट्टाचार्य से दो बाते
हाल-फिलहाल आपके बयान समाचार पत्रों में आते रहे कि 'बिहार में वामदलों- 'भाकपा-माकपा के साथ भाकपा-माले का गठबंधन' न होने के लिए भाकपा-माकपा जिम्मेदार है और उसे ('भाकपा-माकपा) को आपने धोखेबाज, अवसरवादी तथा आत्मघाती कदम जैसे शब्दों तक से नवाजा. आप जानते है कि कम्युनिष्ट पार्टियां अपनी रणनीति और कार्यनीति हरेक तीन सालों के लिए अखिल भारतीय सम्मेलनों में ही निर्धारित किया करती है. इसलिए कम्युनिष्ट पार्टियों पर धोखेबाजी, अवसरवादी तथा आत्मघाती जैसे जुमलों का प्रयोग उचित नहीं है. चूँकि, लोकसभा चुनाव की व्यस्तता की वजह से कम्युनिष्ट पार्टिया (भाकपा-माकपा) के सभी राष्ट्रीय व राज्य-स्तरीय नेतागण स्वाभाविक रूप से व्यस्त होंगे. लिहाजा, मैंने खुद आपके सवालों का उत्तर देने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर उठाया, क्षमा कीजिये.
आजकल, आरएसएस के जादूगर नेता नरेंद्र मोदी भी अपने कंधे पर मुल्क के १२१ करोड़ लोगों के असाध्य समस्याओं का निदान छू-मंतर करने और उनके भाग्य विधाता होने को प्रचारित करता दिख रहा है जिसमे उनके पसंदीदा मित्र अम्बानी-अदानी बंधू भी जी-जान से अपनी 'पूंजी और मीडिया' लेकर जुटें हुए है. इसी क्रम में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर उत्सा पटनायक ने अपने दिल्ली के जाकिर हुसैन कॉलेज में व्याख्यान देते हुए बताया कि किस तरह मनमोहन-मोंटेक-चिदंबरम की केंद्र सरकार ने 22 रपए प्रतिदिन जैसी हास्यास्पद गरीबी रेखा की सीमा मानते हुए और उससे भी चार कदम आगे बढ़कर गुजरात की आरएसएस-भाजपा के कथित विकास पुरूष नरेंद्र मोदी की सरकार ने भी महज ११ रूपये प्रतिदिन आय वालों को गरीबी रेखा से ऊपर रखकर देश के ८० करोड़ लोगों को सफेदपोश नौकरशाहों व कर्मचारीयों की मदद से "आकड़ों की कलात्मक बाजीगरी व बड़े ही छलावे के साथ गरीबी रेखा के नीचे से ऊपर उठा दिया. नरेंद्र मोदी तो खाद्य सुरक्षा बिल को ही बच्चों को चॉकलेट, लौली पॉप बांटने वाला बता रहा है. जबकि, खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति घटती उपलब्धता और बाजार में आसमान छूती महगाई ही इस बात का प्रमाण है कि देश के ८० करोड़ लोगों का जीवन जीना दूभर हो गया है. आज भारत 'भाजपा-कांग्रेस की उदारीकरण की नीतियों के चलते, दुनिया के सबसे गरीब देशों में शामिल हो गया है. अलबत्ता, उन्हौने (प्रोफेसर उत्सा पटनायक ने) कहा कि अगर हम गरीबी रेखा की उसी परिभाषा पर डटे रहते जो 1979 में सरकार ने खुद रखी थी तो दरअसल आज की तारीख में देश की तीन चौथाई आबादी गरीबी की रेखा से नीचे ठहरती है. ये तो सरकारी सफेदपोश कर्मचारीयों के आकड़ों की कलात्मक बाजीगरी कही जायेगी जो बार-बार गरीबी की रेखा के आकलन को ही कम करके दिखाता रहा जो भुखमरी की शिकार जनता के साथ क्रूर व भद्दा मजाक है.
बहरहाल, इस समय आरएसएस-भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ अधिसंख्य राजनीतिक कतारों का गुस्सा भी दिन बा दिन बढ़ता ही जा रहा है. आरएसएस-भाजपा ने देश के मौलिक प्रश्नो को दरकिनार करते हुए जिस तरह दैत्यनुमा अम्बानी-अदानी और अन्य देशी-विदेशी कार्पोरेट घरानो ने एकसाथ मिलकर "तिकड़मबाज, दंगाई, फसादी नरेंद्र मोदी को, देश का सबसे बड़ा नेता बनाने के लिए साम्प्रदायिक-फासीवादी अभियान" चलाया. उस मोदी के लिए जिसके दिलो-दिमाग में न तो देश के ८० करोड़ लोगों की रोजी-रोटी, कपड़ा-मकान, शिक्षा-स्वास्थय के लिए वास्तव में कोई योजना है, और न ही आने वाली नस्लों की बेहतरी के लिए मोदी की आँखों में कोई सपना है, वही मोदी जो बार-बार गुजरात की तर्ज पे देशभर में निर्दोष व मासूम इंसानों का कत्ल करने के जरिये सत्ता हासिल करने के मंसूबे पालने के सिवा 'जातीय क्षत्रपों को अपने साथ मिलाने, और जनता को जातीय आधार पर विभाजित करने की रणनीति पर ही काम कर रहा है, जो बिहार, उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश, राजस्थान, गुजरात में आम लोगों के बीच साम्प्रदायिक घमासान मचाना चाहता है, को परास्त करना ही आज की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है.
मुल्क की बेहतरी और आने वाली नस्लों के लिए कौन से उसूल, कौन सा नक्शा, कौन सा सिद्धयांत, कौन सी रणनीति कारगर और सही साबित होंगे...इसे तो बहुत सूक्ष्म व दूर-दृष्टि रखने वाले भी नहीं जानते होंगे. इस समय हिंदी भाषी क्षेत्रों बिहार, उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, मध्य-प्रदेश, छतीसगढ़, हिमाचल-प्रदेश में साम्प्रदायिक ताकतों को पराजित करने के लिए अन्य धर्म-निरपेक्ष कतारों के साथ मिलजुल कर काम करने की जरूरत थी, जबकि, आपने ऐकला चलो की रणनीति अपनायी.
हम जानते है कि, जिस तरह आज माओवादी दुस्साहसवादी 'इंसानों का खून-खराबे करते हुए खुद को इंकलाब और इंकलाबी होने का दम्भ भरते है जबकि, असलियत ये है कि उसका इंकलाब और इंकलाबी दोनों ही दम तोड़ रहा होता है...ठीक उसी तरह, बिहार के सिर्फ चार-पांच जिले में सिमटा हुआ भाकपा-माले भी राष्ट्रीय स्तर पर सामंती साम्प्रदायिक-फासीवादी उन्मादियों को रोकने का दम्भ भरते हुए खुद को संकीर्णतावादी दायरे से बाहर निकलने में अक्षम साबित हो रहा है. ऐसे तमाम धर्म-निरपेक्ष व जनतांत्रिक कतार जो हिटलरी फासीवादी को ईमानदारी के साथ परास्त करना चाहते है, जरूरत है एक व्यापक गठजोड़ करने की....
हमें बेहद अफ़सोस और दुःख हो रहा है कि भाकपा माले समेत आम आदमी पार्टी के योगेन्द्र यादव और केजरीवाल, जयललिता, चन्द्र बाबू नायडू, लालू, रामविलाश, मुलायम-मायावती, ममता भी इस राजनीतिक गम्भीरता को ठीक से समझ नहीं पा रहा है.
ए. सी. प्रभाकर
निदेशक, तीसरी दुनिया का सामाजिक नेटवर्क्स
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