प्रधानमंत्री श्री मोदीजी की अमेरिका यात्रा: चंद सवाल
१. जब इस समय कश्मीर में बाढ़ की भीषण तबाही मची हुई है, (जिसमे अबतक सैंकड़ों लोगों ने जाने गंवाई और अरबों रूपये के जानमाल के नुकसान होने की खबरें आ रही है) प्रधानमंत्री श्री मोदीजी अपनी अमेरिकी यात्रा रद्द कर कश्मीरी अवाम का हालचाल पूछने और क्षति पूर्ति का जायजा लेने कश्मीर क्यों नहीं जा रहे है?
२. तीसरी दुनिया के देशों मध्य-पूर्व (खाड़ी/पश्चिम एशिया) में तेल के अकूत भण्डार पर एक बार फिर से नियंत्रण पाने के लिए साम्राज्य्वादी जंगी अमेरिका व फ्रांस (नाटो) मिलकर इराक पर टूट पड़ा है (जिस अमेरिका/नाटो ने टर्की व सऊदी अरब के रास्ते सीरिया के खिलाफ आईएसआईएस लड़ाकों का इस्तेमाल कर तकरीबन दो लाख लोगों को शहीद किया; इराक में सद्दाम हुसैन को जबरन सत्ता से बेदखल करने से लेकर अबतक तकरीबन दस लाख लोगों की हत्या पहले ही कर चुका है; और इसके अलावा; फलस्तीन/गजा पर इजरायली का एकतरफा हमले जिसमे हजारों बेक़सूर बच्चों-महिलाओं की हत्या पर अमेरिका की न सिर्फ चुप्पी बल्कि चैन से बांसुरी बजा रहा था) उस अमेरिका के साथ गलबँहियाँ करने प्रधानमंत्री श्री मोदी क्यों जा रहे है, यह जानते हुए भी की भारत हमेशा से तीसरी दुनिया के देशों का हिमायती रहा है?
३. भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमन्त्री श्री मोदीजी को स्वाभिमानी होना चाहिए था...फिर जिस अमेरिका ने वर्षों तक; मोदी जी को (वीजा देने पर मनाही) सरकारी यात्रा करने पर पाबंदी लगाया हुआ था, उसी अमेरिका जाने के लिए किन कारणों से उतावला हुए जा रहे है? जहां तक भारत में विदेशी पूँजी-निवेश का सवाल है....पूँजी-निवेश, अगर कृषि, शिक्षा व स्वास्थ्य, ढांचागत क्षेत्रों के विकास, पेट्रोलियम आयल व गैस, पर्यटन के क्षेत्रों में अलबत्ता सख्त जरूरत महसूस की जा रही है, कोई करने को तैयार है तो स्वागत किया जाना चाहिए न की सिर्फ कथित रक्षा (हथियारों की खरीद-फरोख्त) व्यापार में. लेकिन यहां सवाल उठता है की जब हमारा पड़ोसी मित्र चीन (ब्रिक्स का पार्टनर) ही एक सौ अरब डॉलर का पूँजी-निवेश का प्रस्ताव दिया था तो फिर इसकी अनुमति मोदी सरकार ने क्यों नहीं दी? क्या मोदी सरकार के इस रवैये को 'साम्राज्य्वाद-परस्त, अमेरिका-परस्त' होना क्यों नहीं कहा जाना चाहिए (जिसने आने वाले दिनों में अमेरिका के लिए भारतीय बाजारों में उतरने से पहले लाल-हरे रंग की कालीन बिछाने का बहाना ढूंढा है?
४. हमे घोर आश्चर्य है की कथित 'राष्ट्रभक्त-देशभक्त' जो वास्तव में "लम्पट ब्राह्मण-बनियों का संघी गिरोह" है, और मीडिया (टेलीविजन/रेडियो) में चबा चबाकर अंग्रेजी बोलने वाले तथाकथित बुद्धिजीविओं का एक वर्ग (जो अक्सर हिंदी खुद को हिमायती बताता है), ने चुनाव के वक्त मोदीजी को एक दहाड़ता हुआ जंगली 'सिंह-बाघ' की तरह प्रोजेक्ट किया था, अब जापान-अमेरिका (साम्राज्य्वादी खेमे) में कूदने का बहाना ढूंढ रहा है...अन्यथा; चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा से 'आर्थिक सहयोग के बड़े अवसर' को मोदी सरकार ने यूँ ही नहीं गंवा दिया होता...बात यहां झूला-झुलाने की हम नहीं करने जा रहे है...?
हम जानते है की जिस विदेशी 'पूँजी-निवेश' के लिए भारत की 'पूंजीवादी-कॉर्पोरेट (नैगमिक) व कठमुल्ला प्रतिक्रियावादी ब्राह्मण- बनियों की सामंती माफिया-अपराधियों की मिलीजुली सरकार ढिंढोरा पीट रही है और उसी के लिए कल तक कभी विश्व-बैंक-आइएमएफ तो कभी अमेरिका-जापान की तरफ मुंह टुकुर-टुकुर देखकर उसका दरवाजा खटखटाता रहा है, उसने चीन के एक सौ अरब डॉलर (१०० बिलियन डॉलर) का पूँजी-निवेश भारत में करने के प्रस्ताव को ठुकरा कर सचमुच में आर्थिक-सहयोग के बड़े अवसर को ही गंवा दिया है.
हमें यह बात आजतक हजम ही नहीं हो पा रहा है की आखिर, जब चीन नेपाल में एक अरब डॉलर का पूँजी-निवेश के लिए आगे बढ़ता है तो कमबख्त कथित भारतीय ब्राह्मणवादी दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों के चूतर में सुई क्यों चुभने लग जाती है...और उसे नेपाल-चीन सहयोग कहने के बजाय इसे 'चीन की विस्तारवादी नीति कहकर चीन का नेपाल में बढ़ते प्रभाव का ढिंढोरा पीटा जाता है.
चीन ने इसके पहले पिछड़े अफ़्रीकी देशों के पिछले दस अरब डॉलर के बकाया कर्जों को माफ़ किया है और फिर से दस अरब डॉलर का नया आर्थिक पैकेज दिया. अमेरकी अर्थ-व्यस्था जो इस समय भयानक आर्थिक मंदी का सामना कर रहा है उसका भी पूरा कर्ज-भुगतान का जोखिम चीन ने ही अपने सर पे उठा रखा है. चीन आज बहुत कामयाब सक्षम देश बन गया है जो अंतर-राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग में अपनी महती भूमिका निभा रहा है. चीन ने (ब्राजील में गत जुलाई २०१४ को नवगठित नए ब्रिक्स बैंक (जिसमे चालीस प्रतिशत की हिस्सेदारी के बाबजूद;) बीस प्रतिशत हिस्सेदारी करने वाले भारतीय चेयरमैनशिप के साथ काम करना शुरू किया.
बहरहाल, हम जानते है की...'भारत के दौरे पे आये चीनी राष्ट्रपति शी जिंनपिंग कल अपनी तीन दिवसीय भारत यात्रा जब समाप्त कर चुके है तब एकबार फिर से वही चिर-परिचित पुराणी राग कथित "घुसपैठ" "सीमा-विवाद" (जो ब्रिटिश हुकूमत द्वारा; ऐतिहासिक मैकमोहन रेखा पर अटकी हुई है) को लेकर बबेला मचना शुरू हो गया है...अरे, कमबख़्तो! जब दोनों देशों के बीच एलओसी का निर्धारण ही नहीं है, न कोई दीवार/बार है तो फिर घुसपैठ कैसे? लेकिन भारतीय ब्राह्मणवादी सांप्रदायिक कथित बुद्धिजीवियों और उसके गुंडा वाहिनी का सूअरों की तरह चीखने चिल्लाने से कोई कैसे रोक सकता है?
ए. सी. प्रभाकर
निदेशक- तीसरी दुनिया का सामाजिक नेटवर्क्स
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