पश्चिम बंगाल: माकपा व वामपंथ का हश्र
यह सच है की पिछले आमचुनाव और विभिन्न राज्यों के उपचुनावों में 'माकपा व
वामदल', हाशिये पर धकेल दिए गए है. पश्चिम बंगाल में जहां माकपा व
वामदलों ने आधी सदी से भी ज्यादा समय तक निर्णायक भूमिका अदा की थी वहाँ
अब खासकर जनता के कुछ हलकों (जो कल तक परम्परागत रूप से वामदलों के साथ
जुड़े हुए थे) द्वारा; ठुकराया जाना गंभीर चिंता का बिषय बना हुआ है.
पश्चिम बंगाल की "जन-आकांक्षाओं को मार्क्सवाद की कसौटी" पर परखे बिना
कोई भी मूल्यांकन अवैज्ञानिक होगा. नेतृत्व परिवर्तन का जहां तक सवाल
है...जैसाकि, वयोवृद्ध पूर्व माकपा सांसद श्री सोमनाथ चटर्जी और अन्य
वामपंथी बुद्धिजीवियों ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए वाममोर्चा में
नेतृत्व परिवर्तन का सुझाव पेश किया है...मैं समझता हूँ, इस पर अब विचार
करने का सही वक्त आ गया है. लेकिन एक मार्क्सवादी सामाजिक कार्यकर्ता व
चिंतक होने के नाते मेरी राय उनलोगों से जरा भिन्न हो सकती
है...'कम्युनिष्ट पार्टी सिर्फ नेताओं के अदल-बदल कर लेने भर से अपनी खोई
हुई प्रतिष्ठा व साख हासिल नहीं कर सकती, और न ही जनता के विशाल हिस्से
के दिलों को छू सकती है. मेरी राय में- आज के "ठोस हालात/ परिस्थितियों
के हिसाब से राजनीतिक नारे व कार्यक्रम" तय करने की जरूरत है. अन्यथा;
कम्युनिष्ट नेतागण: का. बुद्धदेव भट्टाचार्य, बिमान बासु, सूर्यकांत
मिश्रा या पूर्व माकपा नेता का. सोमनाथ चट्टर्जी (जिनके महान त्याग,
ईमानदारी व सादगी पसंद जिंदगी के बारे में किसी को कोई शक नहीं है. और न
ही आजतक किसी विरोधियों ने भी उंगलियां उठाने की हिम्मत जुटा पाया है) के
बारे में कैसे यह मान लिया जाय की वे नेतागण सडा हुआ टमाटर हो गए है
जिन्हें अब रद्दी की टोकरी में उठाकर फेंक दिया जाना चाहिए.
हाँ, पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धातों के "क्रान्ति के
वैचारिक-आधार" शहरी शिक्षित मध्यवर्गीय युवा पीढ़ी में दिनों-दिन कमजोर
होता चला जा रहा है...इसकी गिरावट को अगर समय रहते रोका न गया तो
समस्याएं निकट भविष्य में सुलझने के बजाय और ज्यादा जटिल होती चली
जायेगी.
माकपा का 'अखिल भारतीय दलित संगठन' परियोजना
भारत में जातिवाद दरअसल दक्षिण-अफ्रीका के इतिहास के गर्त में जा चुके उस
रंग-भेदी निजाम से भी कही ज्यादा खतरनाक है जिसके खिलाफ
"सामाजिक-राजनैतिक व सांस्कृतिक' स्तर पर जूझे बिना मजदूर-वर्गीय आंदोलन
को भी आगे बढ़ाया नहीं जा सकता. माकपा ने आगामी नवम्बर महीने में दिल्ली
में 'अखिल भारतीय दलित संगठन' गठित करने के उद्देश्य से
राष्ट्रीय-सम्मलेन बुलाया है. जाहिर है, दलितों के तथाकथित स्वयंभू नेता
रामविलास पासवान, उदितराज, आप्टे/आम्टे और मायावती सरीखे कुछ अन्य कुर्सी
जुगाड़ू नेताओं के अवसरवादी-समझौतावादी रवैये के चलते भारत का दलितवर्ग
पूरी तरह से ठगा/छला हुआ महसूस कर रहा है. दिग्भ्रमित व प्रभावहीन हो
चुके दलित-आंदोलन को नए सिरे से संगठित करने तथा "प्रतिक्रियावादी
ब्राह्मणवादी सामाजिक-ढाँचे" को चुनौती देने के लिए माकपा का यह पहल देर
से ही सही किन्तु; बेहद सराहनीय है.
यह सर्वविदित है की पिछले दो-तीन दशकों से 'आक्रामक चले आ रहे बहुसंख्यक
(ब्राह्मणवादी-हिन्दू) साम्प्रदायिक-फासीवाद' ने बेक़सूर हजारों इंसानों
को बलि चढ़ाया है. यह नापाक दानवी शक्तियां- 'विदेशी युरेशियन 'आर्य
-ब्राह्मण' जो खुद को सूर/देवता कहा और मूलनिवासी 'दलित-आदिवासी-शूद्र'
को असुर/राक्षस, ने 'दलित-आदिवासी नेता 'शम्बूक' और 'महिषासुर' की ह्त्या
का पिछले हजारों साल से सार्वजनिक-रूप से भोंडे 'जश्न' मनाने का आपराधिक
कु-कृत्य करता चला आ रहा है...जो इस बात का पुख्ता सबूत पेश करता है की
'विदेशी युरेशियन 'आर्य -ब्राह्मण' और मूलनिवासी 'दलित-आदिवासी-शूद्र' के
बीच भीषण संग्राम हुए थे... और यह बात पाखंडी ब्राह्मण आरएसएस प्रमुख
श्री मोहन भागवत भी जाहिर है अच्छी तरह से जानते है....माकपा के इस पहल
से निश्चय ही नए 'सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष' तीखा किया जा सकेगा.
ए. सी. प्रभाकर
तीसरी दुनिया का सामाजिक नेटवर्क्स .
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