गुजरात साम्प्रदायिक दृष्टि से एक 'पागलखाना' है
गुजरात साम्प्रदायिक दृष्टि से एक 'पागलखाना' है, जिसका 'सांप्रदायिक-उत्पाद' मोदी है. दकियानूसी ब्राह्मण-बनियों के पीठ पर सवार मोदी की सबसे बड़ी योग्यता- 'बेगुनाहों के खून से लथपथ 'गुजरात २००२ नरसंहार' के बाद कथित "गौरव-यात्रा का सफल आयोजन" है, जाहिर है, उसी के नक्शे कदम पर चले अमित शाह जो "मुजफ्फरनगर जनसंहार" के प्रमुख 'सूत्रधार' है…अब समूचे देश को 'पागलखाना' बनाने पर आमादा है. गुजरात के एक चाय स्टॉल मालिक का बेटा, न्यूयॉर्क का 'रॉकस्टार', बनारस का 'हर-हर मोदी', 'अम्बानी-अडानी का प्रमुख चहेता', सांप्रदायिक-तनाव/दंगे पर मौनव्रत धारण करने वाला आरएसएस के इस साक्षर प्रधानमंत्री पर आज का आधुनिक, शिक्षित व सभ्य भारत बेहद शर्मिन्दा है.
'न्यायपूर्ण-युद्ध' के लिए आगे बढ़ो!
बाईस सौ सालों की 'विदेशी युरेशियन आर्य-ब्राह्मण-वर्चस्ववादी "सामाजिक-सांस्कृतिक गुलामी" का प्रतीक चिन्ह: 'मठों-मंदिरों' को ध्वस्त करने और लगभग 'पांच लाख चौहत्तर हजार मंदिरों में जमा पचपन लाख करोड़ रूपये मूल्य की सम्पत्ति' पर कब्जा जमाने के लिए देशभर के सभी दलित-आदिवासी-ओबीसी-अल्पसंख्यक संगठनों को आक्रामक तरीके से सड़कों पे उतरना चाहिए. इतिहास साक्षी है कि- 'आर्यसमाजी दयाराम सरस्वती' ने मध्य-युगीन काल (सोलहवीं सदी) में ही मंदिरों में 'मूर्ति-पूजा' का डटकर विरोध किया था. 'कबीर' ने तेरहवीं सदी में 'ब्राह्मण-मुल्ला को धिक्कारा' था, 'बुद्ध' ने दो हजार साल पहले ही 'ईश्वर की अवधारणा' को ख़ारिज कर दिया था. 'चार्वाक' ने हजारों साल पहले ही 'भौतिकवादी- दृष्टिकोण' को स्थापित किया. सूफी, रविदास, ज्योति बा फूले, पेरियार स्वामी की समूची पीढ़ी सड़ांध 'सनातनी-ब्राह्मणवाद' के खिलाफ खड़ा है. हमारी समझ में नहीं आता है कि फिर 'बदमाश दकियानूसी ब्राह्मण' इसके बाबजूद; हठ क्यों किये जा रहा है?
पूर्व प्रधानमंत्री श्री वीपी सिंह ने भी कहा था: "अन्यायपूर्ण शान्ति के बजाय न्यायपूर्ण युद्ध हो! भारत में घृणित "ब्राह्मण-वर्चस्ववादी जातिभेद" के खिलाफ "निर्णायक जंग" छेड़ने का सबसे उपयुक्त समय आ गया है. बीसवीं सदी के महान इतिहास रचयिता नेल्सन मंडेला द्वारा; दक्षिण-अफ्रीका में 'नस्लीय रंगभेद' के खिलाफ शुरू किये गए 'हिंसात्मक संघर्ष' से भारत की 'सामाजिक-न्यायवादी' शक्तियों को प्रेरणा लेनी चाहिए. दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि 'सामाजिक-रूपांतरण' का कार्यभार 'शांतिपूर्ण व अहिंसात्मक' तरीके से कभी भी पूरा नहीं हो पाया है.
दक्षिण एशिया और खासकर भारत में बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम व ईसाई धर्म की लोकप्रियता और फैलाव के पीछे मुख्य कारण था: विदेशी युरेशियन "आर्य-ब्राह्मण वर्चस्ववादी घृणित जातिभेद, छूआछूत, अस्पृश्यता, अंधविश्वास, पाखण्ड, दकियानूसी विचार व व्यवहार, तथा सामाजिक कुप्रथाएँ; जैसे सती-प्रथा, दहेज़-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-प्रथा, मूर्ति-पूजा आदि-आदि. इसी से आजिज होकर बड़े पैमाने पर शूद्र जातियां बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम व ईसाई धर्म के प्रति आकर्षित हुई थी. फिर जबतक घृणित जातिभेद, छूआछूत, अस्पृश्यता, अंधविश्वास, पाखण्ड पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाता तबतक कथित रूप से धर्मांतरण के जरिये घर वापसी कैसे सम्भव है?
दूसरा सवाल: कभी सोचा है आपने...क्या होगा तब ?
रेमिटेंस के मामले में भारत दुनियां में सबसे अव्वल स्थान रखता है. विदेश में काम करने वाले लाखों भारतीय हर साल तकरीबन सत्तर अरब रूपये भारत भेजते हैं. ये भारतीय गैर-हिन्दू देशों; यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व (मुस्लिम देशों), पूर्वी एशिया/दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न देशों- मलेशिया, ब्रूनेई, थाईलैंड आदि जगहों में काम करते है. कभी सोचा है आपने कि- जिस तरह आरएसएस ने पिछले कई वर्षों से अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा फैलाते हुए हिंसा को बढ़ावा देता चला आ रहा है...और अब 'धर्मांतरण अभियान चलाकर कथित 'घर वापसी' का नाटक कर रहा है. अगर इसकी प्रतिक्रिया विदेश में हुई तो क्या होगा? विदेश में काम करने वाले लाखों भारतीय को भी 'धर्मांतरण' करने को मजबूर किया जा सकता है. विदेश में काम करने वाले लाखों भारतीय को नौकरी से निकाला जा सकता है. विदेश में काम करने वाले लाखों भारतीय को सामाजिक-प्रशासनिक प्रताड़ना दी जा सकती है.कभी सोचा है आपने...क्या होगा तब ?
मुलायम को 'मुलायमियत' छोड़नी होगी
मुजफ्फरनगर की घटना से सबक सीखते हुए मुलायम अपनी मुलायमियत छोड़े और साम्प्रदायिक गुंडों को जमींदोज करे. उत्तर-प्रदेश की जनता ने 'स्विट्जरलैंड से पढ़ा-लिखा तेजतर्रार युवा नेता अखिलेश यादव के प्रति' अभूतपूर्व तरीके से समर्थन व्यक्त किया था उत्तर-प्रदेश के आधुनिक विकास के लिए...मगर, नापाक सांप्रदायिक-शक्तियों ने लगभग हर महीने के हर रोज किसी न किसी शहर में सांप्रदायिक नफरत व घृणा फैलाने के जरिये उत्तर-प्रदेश में क़ानून-व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती पेश किया. अखिलेश यादव की नयी सरकार क़ानून-व्यवस्था को संभालने में ही सालोंभर उलझी रही है. घृणित सांप्रदायिक शक्तियों को धुल चटाने के लिए सपा-बसपा समेत वामदलों को जहां एक तरफ सामाजिक- राजनीतिक-सांस्कृतिक स्तर पे कार्रवाई करनी होगी. वहीँ दूसरी तरफ, अखिलेश सरकार को प्रदेश में क़ानून व व्यवस्था को बनाये रखने के लिए सांप्रदायिक संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाने के अलावा सांप्रदायिक गुंडों को जमींदोज करना होगा.
राम सिंह मेमोरियल ट्रस्ट (रसमत)
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