Wednesday, April 22, 2015

सीताराम कैसे बने सीपीएम के महासचिव?

सीताराम कैसे बने सीपीएम के महासचिव?



----प्रफुल्ल बिदवई वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक

आखिरकार लंबी जद्दोजहद के बाद सीताराम येचुरी भारत की सबसे बड़ी
कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बन ही गए. हालांकि ये पूरी कवायद एक
कड़वाहट भरे संघर्ष तक तकरीबन पहुंच ही गई थी. सीपीएम की सबसे ताकतवर
संस्था कही जाने वाली पंद्रह सदस्यीय पोलित ब्यूरो में सीताराम के
विरोधियों का पलड़ा भारी था. लेकिन इसके बावजूद महासचिव का चुनाव करने
वाली सेंट्रल कमेटी में गुप्त मतदान की धमकी देकर सीताराम ने आखिरकार एस
रामचंद्रन पिल्लै के ख़िलाफ़ ये लड़ाई जीत ली. येचुरी के विरोधी ये नहीं
चाहते थे: इसलिए नहीं कि इससे पार्टी की दो सबसे बड़ी यूनिटों, पश्चिम
बंगाल और केरल में विभाजन सामने आ जाता, बल्कि इसलिए कि इससे केरल की
इकाई में दरार उजागर हो जाती, जहां पिनाराई विजयन बॉस थे.

इसकी कहानी दिलचस्प है. अधिकांश भारतीय पार्टियों के मुक़ाबले
कम्युनिस्टों के पास अधिक लोकतांत्रिक सांगठनिक ढांचा है. वे संभवतः सबसे
अधिक लोकतांत्रिक दिमाग वाले और अपने राजनेताओं में सबसे कम चापलूसी करने
वाले हैं. लेकिन वो आंतरिक पार्टी एकता को लेकर इतने चिंतित रहते हैं कि
वे अपने मतभेदों को बताने से झिझकते हैं. उन्हें जनवादी केंद्रीयता
सिखाया जाता है, ऐसा सांगठनिक सिद्धांत जिसके अनुसार, सदस्य हर तीन सील
में होने वाली पार्टी कांग्रेस में बहस करने के लिए स्वतंत्र होते हैं,
लेकिन कांग्रेस के फ़ैसलों को कड़ाई से मानना और सार्वजनिक रूप से मतभेद
ज़ाहिर न करना ज़रूरी होता है.



कुछ ज़रूरी सवाल...

येचुरी की जीत माकपा में नेतृत्व में बदलाव के संक्रमण को दिखाता है.
लेकिन इसने अन्य ज़रूरी बदलावों को छोड़ दिया है: विचारधारात्मक,
रणनीतिक, कार्यक्रम से संबंधित और सांगठनिक. यदि पार्टी को अपनी गिरावट
को रोकना है और ग़रीबों व पिछड़ों पर केंद्रित साफ़ और सैद्धांतिक
राजनीति के लिए वामपंथी ताक़त के रूप में अपनी प्रासंगिकता फिर से पानी
है तो उसे इन सवालों का जवाब ढूंढना होगा. ऐसी पार्टी के लिए, जिसका
एजेंडा जाति, लिंग और सांस्कृतिक विभाजन से परे बराबरी, इंसाफ़ और
सामाजिक उत्थान है, यह ज़रूरी है. भारतीय लोकतंत्र को ऐसी किसी ताक़त की
बहुत ज़रूरत है. ये बदलाव महज़ एकपक्षीय इच्छाएं नहीं हैं, बल्कि यह उन
स्थितियों से उपजे सवाल हैं, जिनसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों का सामना
होता है.



गिरता जनाधार

पिछले साल लोकसभा चुनावों में सबसे बुरे प्रदर्शन के बाद ये सवाल और गहरा
गया है. साल 2009 के मुक़ाबले इनका वोटिंग प्रतिशत आधा हो गया है और
सीटें 11 पर सिमट गई हैं. साल 2004 में 61 सीटों से 2009 में पार्टी 24
सीटों तक सिमट गई और जबकि पश्चिम बंगाल में बुरी तरह मिली हार. ये अब तक
की सबसे बड़ी हार थी. पश्चिम बंगाल में बिना विरोध के वाम मोर्चे ने 34
सालों तक राज किया था, जो एक विश्व रिकॉर्ड है. वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल
में हारा क्योंकि यह पर्याप्त रेडिकल नहीं रह गया था. इसका भूमि सुधार
बहुत ही कमज़ोर और आसामियों-बटाईदारों को पंजीकृत करने/सुरक्षा देने तक
ही सीमित हो गया था. उन्हें मालिकाना हक़ नहीं सौंपा गया.

भूमि सुधार

यह भूमिहीन खेतिहर मज़दूरों को संगठित करने में नाक़ामयाब रहा. इसने
ट्रेड यूनियनों की धार को कुंद किया. इसने पंचायती राज की अगुवाई की
लेकिन इसे सरपरस्ती वाले तंत्र में बदल दिया. 1990 के दशक में वाम मोर्चे
ने किसी भी क़ीमत पर औद्योगिकरण की नीति इस मासूम भरोसे के साथ अपनाई कि
यह उत्पादक ताक़तों को आधुनिक बनाएगा और ज़बरदस्ती ज़मीनें अधिग्रहित
कीं. सिंगूर-नंदीग्राम बीमारी के मूल कारण नहीं, बल्कि कार्ययोजना से
जुड़े गहरे संकट के लक्षण थे.



माकपा का उच्च जाति वाला भद्रलोक नेतृत्व, जाति, लिंग और मुस्लिम विरोधी
भेदभाव से निपटने में विफल रहा.



पुरानी कार्यशैली

यह पार्टी, पदलोलुपों और अवसरवादियों की पार्टी बनकर रह गई, जो कल्पनाओं
और आईडिया के मामले में तो दीवाने थे, लेकिन अपने छोटे सहयोगियों के
प्रति उदासीन और अहंकारी थे. केरल में वाम मोर्चा का आधार हालांकि कुछ हद
तक कम हुआ है, लेकिन विजयन के चलते ठोस बना रहा. यहां फिर से वापसी हो
सकती है यदि प्रगतिशील एजेंडे पर लोगों को जोड़ा जाए.

राष्ट्रीय स्तर पर वाम दल 'भारतीय विशेषताओं के साथ पूँजीवाद' या बुर्जुआ
लोकतंत्र का बारीक़ विश्लेषण विकसित नहीं कर पाए. वाम दल संसदीय और ग़ैर
संसदीय गतिविधियों के मेल से समाजवाद की ओर संक्रमण की रणनीति विकसित
नहीं कर पाए. अपनी वैचारिक कंगाली के सतह पर आ जाने के बावजूद, उन्होंने
लगातार तीसरे मोर्चे वाले गठबंधन बनाना जारी रखा.

सबक

ऐसे समय में उग्र सुधार वाली नीतियों पर आधारित कार्यक्रम बना सकते थे और
यूपीए के साथ बेहतर मोल-भाव कर सकते थे, लेकिन उन्होंने यह नहीं किया.
वाम दलों ने भारत-अमरीका परमाणु सौदा जैसे एक गूढ़ मुद्दे पर बिना
लोकप्रिय समर्थन के समर्थन वापस ले लिया और बहुत ही निराशानजक तरीक़े से
विश्वासमत हार गए.



प्रकृति, उत्पादन और उपभोग के बीच एक नए रिश्ते के रूप में पूँजीवाद,
पारिस्थितिकी और समाजवाद के बारे में वाम दलों की सैद्धांतिक समझ
आधी-अधूरी बनी रही. समाजवाद के मॉडल (सोवियत/चीन) के बारे में उनका
असमंजस बरकरार रहा. वाम मोर्चे को विचारधारात्मक, रणनीति और कार्यक्रम
संबंधित मुद्दों को फिर से जांचना परखना चाहिए और सोवियत यूनियन के ढ़हने
से सही सबक हासिल करना चाहिए, जिसपर लोकतंत्र की कमी, चरम नौकरशाही,
जैसी-तैसी आर्थिक योजना और सैन्य मामलों का फैलाव भारी पड़ गया था.



वाम दलों को बिना पहचान की राजनीति के सामने घुटने टेके, जाति, लिंग और
जाती-भाषाई मुद्दों पर एक साकारात्मक कार्यवाही पर ज़्यादा ध्यान देना
चाहिए.



बदलने होंगे तौर तरीक़े

वाम दलों को मज़दूर वर्ग का स्वाभाविक अगुआ मानने की अपनी मान्यता को
छोड़ना चाहिए और एक संतुलित रिश्ता बनाना चाहिए. इन्हें जनवादी
केंद्रीयता से तौबा कर, रणनीति और कार्यनीति पर स्वतंत्र बहस और पार्टी
के अंदर धड़ों के बनने की इजाज़त देनी होगी. स्वतंत्र बहस संकट और
संक्रमण के समय बहुत अहम होती है. एकता के नाम पर दमघोंटू माहौल, उन
ग़लतियों को दोहराने का रास्ता है, जिन्हें पहचाना नहीं जाता और इसलिए
सुधारने की कार्रवाई भी नहीं हो पाती.



इन सब के अलावा, वाम दलों को तात्कालिक मुद्दों पर ग़रीबों के बीच ज़मीनी
काम की ओर लौटना चाहिए. जंगल, जल, जमीन के मुद्दों पर स्वतः और बढ़ते जन
आंदोलनों पर एक समान काम करना सीखना होगा.

यदि आम आदमी पार्टी, भारत में अपारम्परिक राजनीति की जगह का एक हिस्सा
अपने नाम कर सकती है, तो वाम दल भी ऐसा कर सकते हैं.



कोई भी केवल यह उम्मीद ही कर सकता है कि येचुरी, संसदीय कामों की ओर अपने
पूर्वाग्रह के बावजूद, इस चुनौती से पार पा पाएंगे.



[Source: बीबीसी हिन्दी]

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