महान किसान योद्धा कामरेड रामबाबू को क्रांतिकारी श्रद्धांजलि अर्पित
एक महान किसान योद्धा, कम्युनिष्ट नेता और एक सामाजिक क्रांतिकारी के रूप में अनवरत सशस्त्र संघर्षों का नेतृत्व करने वाले का. रामबाबू को दूसरी बरसी पर उन्हें क्रांतिकारी श्रद्धांजलि अर्पित है. बिहार का खगडिया जिला (जो पहले मुंगेर जिला का हिस्सा हुआ करता था) के चौथम अनर्गत बागमती नदी के किनारे बसा छोटा सा गांव भरपूरा में १९१८ के आसपास का. रामबाबू का जन्म हुआ था. इसी चौथम में राजा सुरेन्द्र सिंह (जिन्हें, १९८० में स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी ने मानसी की एक सभा के दौरान बिहार का तीसरा राजा की उपाधि दिया था), के खिलाफ आंदोलन का पहला शंखनाद फूँका था. इसके बाद 'उत्तर-प्रदेश के बलिया से लेकर बिहार के पूर्णिया तक लगभग सत्रह जिले के जमींदारों व सामंतों (जिसने खगडिया जिला के बेलदौर में अपना उपनिवेश कायम कर रखा था), के खिलाफ किसानों का महान "सशस्त्र संघर्षों" का नेतृत्व किया था. बिहार की कांग्रेसी हुकूमते रामबाबू को इनके दर्जनभर से ज्यादा क्रांतिकारी साथियों के साथ भागलपुर, मुंगेर, खगडिया, सहरसा, मधेपुरा के जेलों में वर्षों तक कैद रखकर इस इलाके के स्थानीय सैंकड़ों बटाईदारों को जबरन बेदखल कर दिया था. तकरीबन नौ साल बाद १९७४ में जेल से बाहर आते ही रामबाबू ने सैंकड़ों बटाईदारों को एकबार फिर से इकट्ठा कर जमींदारों द्वारा लगाई गयी फसलें लूट ली और नए सिरे से बटाईदारों को जमीने वापस दिलाया.
हालांकि, रामबाबू साक्षर नहीं थे. इस महान क्रांतिकारी के संघर्षों के बारे में कोई लिपिबद्ध पुस्तक अथवा तस्वीरें भी मौजूद नहीं है. बहरहाल, गुप्त ठिकानों पे रात में बैठकर योजना बनाने वाले क्रांतिकारी योद्धा (पहले से तैयारी करके) फोटो खिंचवाने और अखबारों में चर्चा के लिए 'युद्ध के मैदान' में नहीं उतरा करते...ऐसे योद्धा की एकमात्र धुन होती है- 'सामंतों की रीढ़ को तोड़ना और आम गरीब मेहनतकशों की लड़ाई को आगे बढ़ाना. पूर्णिया के रूपौली थानान्तर्गत ब्रह्मज्ञानी एस्टेट के सैंकड़ों सिपाही, उसके मैनेजर, उसके लठैत समर्पण करने को मजबूर हुए. ब्रह्मज्ञानी एस्टेट के कचहरी को ध्वस्त कर दिया गया. माकपा की अगुआई वाले जुझारू किसान संगठन ने १९७४ में राज्य-स्तरीय अखिल भारतीय किसान सभा का सम्मेलन रामनगर में आयोजित किया था जिसमे माकपा के राष्ट्रीय नेता कामरेड सुरजीत और कामरेड ए. के. गोपालन शामिल होने आये थे. इस ऐतिहासिक सम्मेलन के बाद मजदूरों ने भी जमींदारों और सामंतों की जमीन पर खेती करने और उसके मवेशियों की देखरेख के लिए मजदूरी करने से साफ़ इंकार कर दिया. मजदूरों के काम करने से इंकार कर देने के चलते जमींदारों को वहाँ से पलायन करना पड़ा.
कामरेड रामबाबू "ब्राह्मणवादी कर्मकांड" के विरोधी थे. किशोरावस्था में ही रामबाबू ने अपने पिता की मृत्यु के बाद श्राद्ध, क्रियाकर्म करने से इंकार कर दिया. वह शादी-विवाह, श्राद्ध या फिर त्यौहार के मौके पर की जाने वाली धार्मिक आडम्बर, पूजा-पद्धति के बिलकुल खिलाफ थे. आध्यात्मिक जीवन में का. रामबाबू सदैव कबीर के विचारों को पसंद किया करते थे. निरक्षरता के बाबजूद; वे कबीर के भजन से लेकर उनकी लोकोक्ति लोगों को सुनाते रहते थे. अवाम में इनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कोसी-बागमती नदी में आये भयंकर बाढ़ के समय बाँध की मरम्मति के लिए किसी कलक्टर या बीडीओ के सामने मोहताज रहने की बजाय रामबाबू की अगुवाई में जोशो-खरोश के साथ सैंकड़ों जनता खुद श्रमदान करने आगे आ जाती थी. १९७६ में जमींदार की कचहरी पर रामबाबू ने शिवनगर मध्य विद्यालय स्थापित कर दिया जिसे सरकार ने बाद में चलकर मंजूरी प्रदान किया. ऐसे विरले महान किसान योद्धा की पीढ़ी बार-बार देखने को नहीं मिला करती.
१९८२ तक आते आते माकपा का ही कथितरूप से एक हथियारबंद धड़ा (जो शाखा से लेकर जिला कमिटी तक राजनीतिक नेतृत्व पर हावी हो चुका था), ने अपराधियों का अंतरराज्यीय गिरोह का नेटवर्क बनाकर नेपाल से लेकर पूर्णियां तक आतंक, अपहरण, चोरी, डकैती, लूट, बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया. का. रामबाबू द्वारा इसका विरोध लाजिमी था. माकपा के तत्कालीन जिला कमिटी (जो अपराधियों को प्रश्रय व प्रोत्साहन दे रही थी), ने रामबाबू की हत्या करने की योजना बनायी थी. परिणामस्वरूप; १४ अप्रेल १९८२ को माकपा के इन्ही आपराधिक हथियारबंद गिरोह ने शिवनगर पर धावा बोलकर 'सामूहिक लूट, बलात्कार व हत्या' की घटना को अंजाम दिया. हालाँकि, रामबाबू की हत्या करने में वे नाकाम रहे. रामबाबू अपने जीवन के इस पड़ाव पर बहुत आहत हुए थे. १९८२ से १९८९ तक एकबार फिर रामबाबू को इन अपराधी गिरोहों से लोहा लेना पड़ा और उसे आखिरकार इलाके से खदेड़ दिया गया. उन्हें अपने जीवन में एक बहुत ही कठोर अनुभव के दौर से गुजरना पड़ा. बहरहाल, यह सब अब इतिहास का एक पहलू भर है. रामबाबू ने ०३ जून २०१३ को आख़िरी सांस ली.
हम उन्हें भावभीनी क्रांतिकारी श्रद्धांजलि अर्पित करते है.
ए. सी. प्रभाकर
रामसिंह मेमोरियल ट्रस्ट
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