Sunday, February 28, 2016

[naubhas] अमर शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद के शहादत दिवस (27 फरवरी) पर - शहीदों के सपनों को साकार करने के लिए आगे आयें

अमर शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद के शहादत दिवस (27 फरवरी) पर

शहादत थी हमारी इसलिये कि
आज़ादियों का बढ़ता हुआ सफ़ीना
रुके न एक पल को
मगर ये क्या? ये अँधेरा
ये कारवाँ रुका क्यों है?
चले चलो कि अभी काफ़िला-ए-इंकलाब को
आगे, बहुत आगे जाना है।

साथियो, 

मौजूदा समय में अँधेरे की काली फासीवादी ताकतें देखते-2 समाज के विभिन्न हिस्सों को अपनी गिरफ्त में ले चुकी हैं। जंजीर छुड़ा कर आज़ाद हो चुका फासीवाद का हिसंक पागल कुत्ता तर्क, न्याय, जनवाद की बात करने वालों को दिन-दहाड़े गुर्रा रहा है, नोच खाने पर आमादा है। ज़ुल्मो-सितम के ऐसे दौर में 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' (एच.एस.आर.ए.) के कमाण्डर-इन-चीफ़ अमर क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद के शहादत दिवस (27 फरवरी) पर उनको याद करना ज़ुल्मो-सितम के ख़िलाफ़ कभी न हार मानने वाली ज़िद को याद करना है। अक्सर शासक वर्ग जनता के बीच लोकप्रिय क्रान्तिकारियों की क्रान्तिकारी शिक्षा को धूल और राख के नीचे दबा देता है और उन्हें प्रतिमा में तब्दील कर देता है। आज के अँधेरे दौर में चन्द्रशेखर आज़ाद को याद करना न्याय और बराबरी पर टिके समाज के निर्माण और सच्ची धर्मनिरपेक्षता की उनकी क्रान्तिकारी विरासत को याद करना है।

​चन्द्रशेखर आज़ाद केवल अंग्रेजों के खिलाफ नहीं लड़ रहे थे बल्कि उनकी लड़ाई हर तरह की लूट व गैरबराबरी के ख़िलाफ़ थी। वो कत्तई नहीं चाहते थे कि गोरे साहबों के जाने के बाद इस देश की आम मेहनतकश जनता भूरे साहबों के हाथों लूटी जाय। वो चाहते थे कि देश की बागडोर उनके हाथों में होनी चाहिए जो सारी चीज़ों का उत्पादन करते हैं। इसलिए फिरोजशाह कोटला किला में जब देशभर के क्रान्तिकारियों की बैठक में भगतसिंह द्वारा संगठन के नाम एच.आर.ए. में एस. यानि समाजवाद शब्द जोड़ने और समाजवादी समाज के निर्माण को संगठन के लक्ष्य के रूप में अपनाने का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ तो चन्द्रशेखर आज़ाद ने खुले दिल से इसका स्वागत किया। एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारी शिववर्मा ने अपने संस्मरण (संस्मृतियाँ : राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित) में लिखा है-'शोषण का अन्त, मानव मात्र की समानता की बात और श्रेणी रहित समाज की कल्पना आदि समाजवाद की बातों ने उन्हें मुग्ध-सा कर लिया था। बचपन से ही गरीब किसानों की तकलीफ़ और बनारस जाने से पहले बम्बई में मज़दूरी करते, उनके बीच रहते हुए मज़दूरों के शोषण से वे भली-भांति परिचित हो चुके थे। इसीलिए जैसा कि वैशम्पायन ने लिखा है-'किसानों व मज़दूरों के राज्य की जब वे चर्चा करते तो उसमें उनकी अनुभूति की झलक स्पष्‍ट दिखाई पड़ती थी। आज़ाद पर पहले आर्य समाज की काफी छाप थी। लेकिन बाद में जब दल ने समाजवाद को लक्ष्य के रूप में अपनाया और आज़ाद ने उसमें मज़दूरों-किसानों के उज्ज्वल भविष्‍य की रूपरेखा पहचानी तो उन्हें नयी विचारधारा को अपनाने में देर न लगी। आज के समय में जब धार्मिक कट्टरपंथी धर्मनिरपेक्षता को कूड़े के ढेर में फेंकने पर आमादा हैं, सोशल मीडिया पर कट्टरपंथी 'सेक्युलर' शब्द को गाली के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं या कांग्रेस, सपा जैसी पार्टियों के नकली धर्मनिरपेक्षता को देखकर बहुत सारे संजीदा नौजवान भी धर्मनिरपेक्षता से नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं, तो ऐसे में आज़ाद को याद करना ज़रूरी है। आज़ाद सही मायने में धर्मनिरपेक्षता में यकीन करते थे और उनका पक्के तौर पर मानना था कि धर्म को राजनीति से एकदम पृथक कर दिया जाना चाहिए। एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों ने हिन्दू-मुस्लिम को आपस में लड़ाने वाले अंग्रेजों और प्रकारान्तर से उनके इस काम में सहयोगी तबलीगी जमात, हिन्दू महासभा और आर.एस.एस जैसे संगठनों का जमकर विरोध किया। आज भी पूरे देश में एक कौम को दूसरे कौम में खि़लाफ़ लड़ाया जा रहा है।

आज पूरे देश में देशभक्त और देशद्रोही के नाम पर शासक वर्ग द्वारा उन्माद भड़काया जा रहा है। स्थिति यह हो गयी है कि देश की जनता को लूट-लूटकर अपनी तिजोरी भरने वाले शासक वर्ग की नीतियों का विरोध करने पर शासक वर्ग विरोध करने वालों पर पाकिस्तान या आई.एस.आई. का एजेन्ट, देशद्रोही आदि का ठप्पा लगा देती है। शासक वर्ग अपनी पालतू मीडिया के जरिये देश के लोगों के बीच ऐसे लोगों के खि़लाफ़ ज़हर भरने लगती है। शासक वर्ग के तमाम अपराध छुप जाते हैं। जिस तरह चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे नौजवानों पर अंग्रेजों की लुटेरी सरकार आतंकवादी का ठप्पा लगाती थी उसी तरह आज के भूरे लुटेरे जनता के हक में उठने वाली आवाज़ को दबाने के लिए देशद्रोह का ठप्पा लगाते हैं।

चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रान्तिकारियों के लिए देश का मतलब उसमें रहने वाले करोड़ों मेहनतकश लोगों से था। आज़ाद अन्धराष्‍ट्रवादी नहीं थे। वो अपने देश के अलावा पूरी दुनिया के मेहनती लोगों से प्यार करते थे और अपने देश व पूरी दुनिया के शोषकों से नफरत करते थे। आज़ाद उन लोगों में नहीं थे जो बात-2 पर 'भारत माता की जय' का नारा लगाते हैं और हकीकत में अपने थोड़े लाभ के लिए देश की जनता और प्रकृति को नुकसान पहुँचाने वाले चुनावी पार्टियों के आगे-पीछे घूमते हैं। आज़ाद उनमें से नहीं थे जो देश की जनता के लिए दुःख उठाने की बात आते ही बिल में घुस जाते हैं। आज़ाद वो देशप्रेमी और दुनियाप्रेमी थे जो अपने देश व पूरी दुनिया में आम जनता के जीवन की बेहतरी के लिए अपनी ज़िन्दगी को कुर्बान तक कर देने का माद्दा रखते थे। वो अपनी बात पर सौ प्रतिशत खरे उतरे।

आज जब देशद्रोह व देशभक्ति का शोर मचा है तो महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद के विचारों की रोशनी में नौजवानों से इस पर चर्चा बेहद ज़रूरी है। मीडिया के विभिन्न धड़ों द्वारा बहुत ही गैरजिम्मेदाराना तरीके से जे.एन.यू. में हुयी घटना से सम्बंधित चटपटी, मसालेदार, सनसनीखेज, भड़काऊ वीडियो, तथ्य जनता के बीच परोसे जा रहे हैं। कुछ ही चैनल व पत्रकार संजीदा होकर खबरें व रिपोर्ट दे रहे हैं। मीडिया द्वारा परोसी जा रही खबरों के प्रभाव में नौजवानों का एक हिस्सा उन्माद में है जबकि बहुत बड़ा हिस्सा भ्रमित है कि सही क्या है और गलत क्या है?

सबसे पहली बात देशभक्त कौन है और देशद्रोही कौन है? इसको समझने के लिए इस पर विचार किया जाय कि देश क्या है? देश बनता है लोगों से, लोगों के बीच गहरे प्रेम और भाईचारे से, नदी, झील, झरने, पहाड़ आदि प्राकृतिक सम्पदाओं से। सोचा जाय कि देश के लोगों के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, परिवहन आदि समस्त भौतिक जरूरतों को पैदा कौन करता है? जवाब है देश की करोड़ों मेहनतकश जनता। देश के संगठित और असंगठित क्षेत्र के लगभग साठ करोड़ मेहनतकश देश के लोगों की सारी भौतिक जरूरतें अपनी हड्डियाँ गलाकर पैदा करती है। लेकिन यह मेहनतकश आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में रहने, फुटपाथ पर सोने को मजबूर है। देश के बड़े-बड़े महानगरों में पानी, बिजली, स्वास्थ्य, शौचालय से वंचित करोड़ों मेहनतकशों की आबादी बड़ी-बड़़ी मीनारों के पीछे छुपा दी जाती है। खाये-पीये अघाये लोग तो इन मेहनतकशों को देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। इनकी ज़िन्दगी की क्रिकेट, फैशन, विकास आदि की तमाम चर्चाओं में मेहनतकश का जीवन नहीं होता। जबकि वो अपनी हड्डी गलाकर करने वाले उत्पादन को कुछ दिन के लिए भी रोक दे तो चारों ओर अफरातफरी मच जायेगी। इनके श्रम से पैदा की हुई वस्तुओं को समाज से हटा दिया जाय तो आदमी फिर से आदिम ज़माने में पहुँच जायेगा। आँसुओं और दुःखों के महासागर में डूबे इन करोड़ों लोगों की ज़िन्दगी देखकर तमाम ''राष्‍ट्रभक्तों'' को गुस्सा नहीं आता। साबुन, शैम्पू, पेप्सी, खैनी आदि न जाने कितनी फालतू चीज़ों के विज्ञापन, हीरो-हीरोइनों के ठुमके, खिलाडियों के छक्कों पर घण्टों खबरें दिखाने वाले चैनलों, पेज पर पेज रंगने वाले अखबारों को इनके जीवन की भयंकर दुर्दशा समाज के सामने लाने के लिए न वक्त रहता है न जगह। अंग्रेजों से देश ने ज़रूर मुक्ति पाई पर देश के करोड़ों मेहनतकशों ने श्रम की लूट से मुक्ति नहीं पाई। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद इन मेहनतकशों की सुरक्षा के लिए जो थोड़े बहुत श्रम कानून थे भी वो एक-2 करके ख़त्म किये जा रहे हैं या नेताओं, उद्योगपतियों व लेबर अधिकारियों के गंठजोड़ में वो केवल कागजी बनकर रह गए हैं। चाय बेचने वाले गरीब मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद तो श्रम कानूनों को कागज पर से भी खत्म कर रहे हैं। ताकि धनपशुओं को गरीबों की मेहनत लूटने में कोई कानूनी अड़चन न आये। पूरे देश में मेहनतकशों की औसत मजदूरी 6000-7000 से अधिक नहीं है। रोज तेजी से बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी की हालत में इतने कम पैसों में तो ढंग से पेट भर पाना भी मुश्किल है, एक इंसान की तरह जी पाना तो दूर की बात है। अर्जुन सेनगुप्त कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग 84 करोड़ की आबादी एक दिन में 20 रुपये से अधिक खर्च नहीं कर पाती। प्रतिदिन छः से सात हजार बच्चे भूख व कुपोषण के चलते मौत के मुंह में समा जाते हैं। लगभग 50 प्रतिशत औरतें खून की कमी की शिकार हैं। संविधान के नीति-निदेशक तत्वों में स्वास्थ्य को राज्य की प्राथमिक जिम्मेदारी मानते हुए भी वस्तुस्थिति यह है कि सरकारी अस्पतालों में न दवाइयाँ हैं, न ही डॉक्टर। जबकि प्राइवेट डॉक्टरों व अस्पतालों का धंधा जोरों पर है। हाल ही में मोदी सरकार द्वारा 74 जीवन रक्षक दवाइयों से सीमा शुल्क छूट ख़त्म कर दिया गया। जिससे इनकी कीमतें आम जनता की पहुँच से बाहर हो जाएँगी। शिक्षा की स्थिति यह है कि 100 में से केवल 7 विद्यार्थी ही उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं। शिक्षा में हमारे यहाँ कुल बजट का जो हिस्सा खर्च होता है, वह अफगानिस्तान से भी कम है, लेकिन स्मृति ईरानी ने उच्च शिक्षा के बजट में 8% और प्राथमिक शिक्षा के बजट में 23% की कटौती कर दी। शिक्षा को देशी-विदेशी लुटेरों के लूट का अड्डा बनाने की तैयारी की जा रही है। 30 करोड़ नौजवान बेरोजगार हैं। जनता की गाढ़ी कमाई से खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर निजी हाथों में बेंचने के चलते सरकारी रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं। देश के नेताओं, बड़े अफसरों के, पूंजीपतियों के तकियों में, बोरों में, विदेशी बैंकों में जितने पैसे ठूंस के भरे हैं, उन पैसों को पूरे देश के तमाम गावों, शहरों में स्वास्थ्य, परिवहन, शिक्षा, बिजली, पानी आदि सुविधाएँ पैदा करने में निवेश किया जाय तो करोड़ों रोजगार चुटकी में पैदा हो सकते हैं। नेताओं, उद्योगपतियों व अफसरों की ऐय्याशी में होने वाले खर्च घटाये जायं तो बेरोजगारों को आसानी से उचित बेरोजगारी भत्ता दिया जा सकता है। धन की कमी आदि का बहाना बनाकर देश की जनता को मिलने वाली छूटों, सब्सिडी को घटाया जा रहा है। जबकि उद्योगपतियों को अरबों-खरबों की छूट आये दिन दी जा रही है। इधर देशभक्ति-देशद्रोह का शोर मचा है उधर उद्योगपतियों द्वारा सरकारी बैंकों से लिया गया 2.4 लाख करोड़ का कर्ज जनता द्वारा दिये गये टैक्स से भरा जा रहा है। मोदी हों या कोई और नेता, वो बात करते हैं गरीबों की और तिजोरी भरते हैं अडानी और अम्बानी की। उन्हीं के विकास को देश के विकास के रूप में पेश कर दिया जाता है। तो देश के करोड़ों लोगों की ज़िन्दगी को आज सबसे ज़्यादा खतरा किससे है?


​चुनावी पार्टियाँ वोट बैंक के लिए धर्म, जाति, क्षेत्र, राष्‍ट्र आदि के नाम पर जनता को बाँटने में लगी हैं। लोग आपस में खुद नहीं लड़ते अपितु चुनावी पार्टियाँ द्वारा दंगे भड़काये जाते हैं। अब तक इन दंगों में लाखों लोग बेघर हुए, मारे गए। अंग्रेजों की 'फूट डालो राज करो' की नीति का इस्तेमाल आज देश का शासक वर्ग कर रहा है। जरा सोचिये कि देश की अखंडता व लोगों के आपसी सौहार्द्र को खतरा किनसे है?

चुनाव के समय जनता से किये गये वायदो से मुकर जाना सभी चुनावी पार्टियों का आम शगल है। तमाम नेताओं के आये दिन बयान आते रहते हैं कि जो वोट न करे उसकी नागरिकता रद्द कर दी जाय, लेकिन सभी चुनावी पार्टियाँ खुद चुनाव आचार-संहिता की धज्जियाँ उड़ाती रहती हैं। धनबल-बाहुबल व साम्प्रदायिक-जातिगत ध्रुवीकरण का खेल लगातार चल रहा है। संसद-विधानसभाओं में तमाम अपराधी बैठे हैं पर न्यायालय भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इन धोखेबाजों-अपराधियों को क्या माना जाय?

देश के प्राकृतिक संसाधनों को बुरी तरह नष्‍ट किया जा रहा है। उद्योगपति एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में अपने सामानों की लागत घटाने के लिए मेहनतकशों के श्रम की अवैध लूट के अलावा प्रकृति को भी नहीं बख्षते हैं। उद्योगपति कचरा शोधित करने के बजाय नेताओं की शह पर अपने कारखानों का सारा कचरा श्रम व पर्यावरण कानूनों की धज्जियाँ उडा़कर देश की नदियों में उड़ेल देते हैं। जिसके जहरीले पानी से नदियों के किनारे रहने वाले करोड़ों लोग तरह-2 की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं, फसलें बरबाद हो रही हैं, पेयजल का संकट तेजी से बढ़ रहा है। नदियों को साफ करने के नाम पर योजनायें बनती हैं, पर नदियाँ साफ नहीं होती हैं, इन योजनाओं का पैसा नेताओं, अफसरों व ठेकेदारों की तोदों में समा जाता है। प्रकृति के विनाश के लिए जिम्मेदार लोगों को क्या माना जाय-देशभक्त या देशद्रोही?

देश के लोगों के जीवन की बर्बादी, आपस के भाईचारे को नष्‍ट करने, पूरी प्रकृति को तहस-नहस करने के लिए जिम्मेदार लोग ही असल मायने में देशद्रोही हैं। लेकिन देश की जनता की बर्बादी, साम्प्रदायिक विष बोने वालों, प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करने वालों के ख़िलाफ़ आज देश में जो व्यक्ति, बुद्धिजीवी या संगठन बात करता है, उसे ही तरह-2 की साजिश करके फंसाया जा रहा है। उन पर हमले हो रहे हैं। फर्जी मुकदमों में उन्हें जेलों में डाला जा रहा है। जैसे राष्‍ट्रीय आन्दोलन में देश की जनता के हित की बात करने वालों को अंग्रेज कोड़े, जेल, फांसी, जलावतनी की सजा सुनाते थे। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे महान क्रांतिकारियों पर आतंकवादी का ठप्पा लगाते थे।

अब ज़रा इस विश्‍लेषण की रोशनी में जे.एन.यू. की घटना को देखा जाय तो जिन छात्रों को निशाना बनाया गया, ये वे ही छात्र हैं जिन्होंने मोदी सरकार की छात्र विरोधी, गरीब विरोधी, मजदूर विरोधी नीतियों का विरोध किया था। अब यह साफ हो चुका है कि जे.एन.यू. में भारत विरोधी नारे लगाने वाले तत्व कुछ अराजकतावादी लोग थे। 'दी कांस्पीरेसी' नाम से जारी एक वीडियो से चलें तो नारे लगाने वाले ए.बी.वी.पी. के ही थे। इसी वीडियो के आधार पर 'जी न्यूज' ने देशद्रोहियों को फांसी देने तक की बात कर डाली थी। जिस वीडियो को बाद में 'जी न्यूज' ने अपनी वेबसाइट से हटा लिया (जी-न्यूज की इसी झूठ-फरेब के कारण हाल ही में जी-न्यूज के आउटपुट प्रोड्यूसर विश्‍वदीपक ने इस्तीफा दे दिया।) कोर्ट परिसर में छात्रों पर भाजपाइयों के हमले व भाजपा की हिटलरशाही की नीतियों के खिलाफ ए.बी.वी.पी. के जे.एन.यू. यूनिट से तीन छात्र नेताओं ने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि उन्हें यह तालिबानी संस्कृति मंजूर नहीं। अफजल गुरु का नाम लेने पर भी भगवा परिवार अपने विरोधियों को देशद्रोही बताने लगता है, लेकिन भाजपा ने अफजल की फांसी का तीव्र विरोध करने वाली पीडीपी के साथ न केवल सरकार बनायी अपितु संघ से जुड़े वर्तमान भाजपा महासचिव राम माधव अफजल को शहीद मानने वाली महबूबा मुफ्ती के साथ बातचीत में लगे हैं। स्थिति यह है कि जो भी भाजपा की नीतियों के खिलाफ बोलता है उस पर संघ परिवार देशद्रोही का ठप्पा लगाने लगता है। देशभक्ति का सर्टिफिकेट लेकर घूमने वाले इन संघियों ने आज़ादी के आन्दोलन में अंग्रेजों के खिलाफ एक धेला उठाना तो दूर, उनके लिए मुखबिरी करने, माफीनामे लिखने और सलामी देने का ही काम किया था। भगतसिंह की क्रान्तिकारी विरासत से अंग्रेजों की तरह ये भी इतना डरते हैं कि भाजपा के नेता बयान देने देते हैं कि आज भगतसिंह बनने की ज़रूरत नहीं है और हाल ही में चण्डीगढ़ में एक एयरपोर्ट का नाम भगतसिंह के नाम पर प्रस्तावित होने के बावजूद भगतसिंह का नाम हटाकर किसी आर.एस.एस के मंगल सेन के नाम से प्रस्तावित कर दिया गया। आज़ादी आने के बाद भी ये पूरे देश में सांप्रदायिक उन्माद भड़काने के काम में लगे हैं, ताकि ज़िन्दगी की बदहाली से जूझ रही आम जनता एकजुट न हो सके और अडानी-अम्बानी की तिजोरियां सुरक्षित रहें। अपने विरोध में होने वाले किसी भी कार्यक्रम को ये तत्काल विदेशियों की साजिश से जोड़ते हैं। जबकि आर.एस.एस. के आदर्श ही हिटलर और मुसोलिनी हैं, इनके काम की पद्धति, पोशाक तक फासीवादियों से उधार ली गयी है। आर.एस.एस. के संस्थापक सदस्य मुंजे खुद मुसोलिनी से मिलने इटली गया था। ''राष्‍ट्रभक्ति'' के इन ठेकेदारों से ज़रा पूछा जाय कि वह किस आधार पर देश के लोगों से देशभक्ति का प्रमाणपत्र माँगते हैं?

साथियों, वास्तव में आज पूरे देश में जनता महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी से परेशान है। आर्थिक संकट बढ़ रहा है। इतिहास गवाह है कि संकट के ऐसे दौरों में सत्ता का चरित्र फासीवादी होने लगता है और जनता को एकजुट होने से रोकने के लिए धर्म, सम्प्रदाय व राष्‍ट्र के नाम पर उन्माद भड़काया जाने लगता है। हिटलर और मुसोलिनी जैसे फासिस्ट इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं। लेकिन लोग अगर तर्क व बुद्धि से काम लें तो ऐसी फासिस्ट सत्ताएं धूल में मिल जाती हैं। चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रान्तिकारियों ने आज़ादी के जिस पौधे को अपने ख़ून से सींचा था वो आज मुरझा रहा है। उनका सपना हमारी आँखों में झांक रहा है। इस सपने को टालना हमारी बुजदिली और कायरता ही होगी। इसलिए तमाम इंसाफ़पसन्द व बहादुर नौजवानों से हमारा आह्वान है कि अपने इन महान क्रान्तिकारियों को केवल माला चढ़ाकर पत्थर की प्रतिमा में तब्दील कर देने की बजाय उनके सपनों के समाज निर्माण के लिए अपनी जान लगा दें।

नौजवान भारत सभा

फेसबुक पेज – www.facebook.com/naujavanbharatsabha

ब्‍लॉग –  www.naubhas.in

 

'नौजवान भारत सभाका उद्देश्य देश के बिखरे हुए युवा आन्दोलन को एक सही दिशा की समझ के आधार पर एकजुट करना और उसे व्यापक जनसमुदाय के साम्राज्यवादपूँजीवाद विरोधी संघर्ष के एक अविभाज्य अंग के रूप में आगे बढ़ाना है ।

 

अगर आप भविष्‍य में हमारा मेल नही प्राप्‍त करना चाहते हैं तो नीचे दिये गये अनसब्‍सक्राइब बटन पर क्लिक करें।

Unsubscribe

 

If you wish not to receive our mail in future then please unsubscribe using this link.

Unsubscribe

 

No comments:

Post a Comment